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________________ भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा : ५ और अहंकार) की पाँच भूमियाँ बतलायी हैं - १. क्षिप्त (रजोगुणोद्रेक), २. मूढ (तमोगुणोद्रेक), ३. विक्षिप्त (सत्व - मिश्रितोद्रेक), ४. एकाग्र (सत्वोद्रेक) और ५. निरुद्ध (चित्त निरोध)। इस तरह सांख्य योग दर्शन न्याय-वैशेषिक के आत्म-तत्त्व से एक कदम आगे तो बढ़ता है परन्तु ज्ञान - सुखादि को उसका स्वभाव नहीं मानता है। पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध और उस सम्बन्ध से निवृत्ति भी एक अनसुलझी पहेली बनी रहती है। ५. मीमांसा (पूर्व-मीमांसा) इसे पूर्व मीमांसा तथा कर्म-मीमांसा भी कहते हैं। इसके प्रतिपादक महर्षि जैमिनि हैं। इस दर्शन के तीन प्रमुख व्याख्याता हैं- कुमारिल भट्ट, प्रभाकर मिश्र तथा पार्थसारथी मिश्र। इन तीनों के दार्शनिक सिद्धान्तों में थोड़ा अन्तर है। तीनों ही अपौरुषेय वेद को प्रमाण मानते हैं। इस दर्शन में आत्मा को कर्त्ता - भोक्ता तथा प्रतिशरीर में भिन्न होने से अनेक माना गया है। न्याय-वैशेषिक की तरह यहाँ भी ज्ञान आदि गुण आत्मा में समवाय सम्बन्ध से हैं। प्रतिशरीर में आत्मा के भिन्न होने पर भी आत्मा को व्यापक तथा नित्य माना गया है। इनके यहाँ कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। व्यक्ति कर्मानुसार शरीर धारण करता है, मुक्तावस्था में दुःखों का अत्यन्ताभाव होता है। भाट्ट मत के अनुसार आत्मा में परिणमन क्रिया पायी जाती है । क्रिया दो प्रकार की है १० स्पन्दरूप (जिसमें स्थान - परिवर्तन हो) और परिणमनरूप (जिसमें रूप परिवर्तन हो, स्थानपरिवर्तन नहीं)। इस तरह भाट्ट परिणामी वस्तु को भी नित्य मानते हैं। आत्मा के दो अंश हैं - चित् और अचित् । चिदंश से ज्ञान का अनुभव होता है अचिदंश से परिणमन क्रिया होती है। सुख-दुःखादि आत्मा के विशेष धर्म हैं जो अचिदंश के ही परिणमन हैं। आत्मा चैतन्यस्वरूप न होकर चैतन्यविशिष्ट है। अनुकूल परिस्थितियों में शरीर एवं विषय का संयोग होने पर आत्मा में चैतन्य का उदय होता है। स्वप्नावस्था में विषय - सम्पर्क न होने से आत्मा में चैतन्य नहीं रहता है। इस तरह आत्मा चित् एवं अचित् उभयरूप है। आत्मा का मानस प्रत्यक्ष है- ‘अहं आत्मानं जानामि इस अनुभव के आधार पर आत्मा को ज्ञान और विषय दोनों का कर्त्ता मानते हैं। निष्काम कर्म से और आत्मिक ज्ञान से सब कर्मों का विनाश और मुक्ति होती है । प्रभाकर मिश्र (गुरु) आत्मा में क्रिया नहीं मानते हैं। आत्मा 'अहं' प्रत्यय - गम्य है। ज्ञान का कर्त्ता आत्मा है। प्रपञ्च सम्बन्ध - विलय ही मोक्ष है। चोदना (विधि) ही धर्म है। पार्थसारथी मिश्र मोक्ष में सुख और दुःख दोनों का अत्यन्ताभाव मानते हैं। भाट्टों की एक परम्परा मोक्ष में शुद्धानन्द का अस्तित्व मानती हैं १२ ।
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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