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________________ साहित्य-सत्कार १. मणिभद्रमहाकाव्यम् कवि- मुनि प्रशमरतिविजयजी, प्रकाशक- प्रवचन प्रकाशन, ४८८ रविवार पेठ, पूना-२, मूल्य- रु०१७५/-, पृ० १८६। मणिभद्रमहाकाव्य संस्कृत भाषा में लिखा गया सर्वप्रथम महाकाव्य है। मणिभद्रजी की कथा पर श्री नन्दलाल देवलुक ने अच्छा सङ्कलन किया है। उसमें से एक परम्परा को आधार बनाकर मुनि प्रशमरतिविजय जी ने यह काव्य नौ सर्गों में लिखा है। मणिभद्र नामक यक्ष पूर्व भव में माणिकचन्द नामक एक मूर्तिपूजक श्रावक था जो पद्मनाभ नामक यति के प्रभाव से मूर्तिपूजा-विरोधी हो गया था। कालान्तर में श्री आनन्दविमल सूरि जी के प्रभाव से पुनः जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक हो जाता है और प्रायश्चित्त हेतु शत्रुञ्जय की यात्रा हेतु पैदल चल पड़ता है। रास्ते में लुटेरे उसे मार देते हैं परन्तु धर्मयात्रा के पुण्य प्रभाव से मणिभद्र नामक यक्ष (व्यन्तरदेव) बन जाता है। इधर नाराज होकर पद्मनाभ नामक यति श्री आनन्दविमल सूरि पर भैरव के माध्यम से उपसर्ग करना प्रारम्भ कर देता है। एक दिन आनन्दविमल सूरि का साक्षात्कार मणिभद्र से होता है। मणिभद्र यक्ष श्री आनन्दविमल सूरि जी के साधुओं पर समागत उपसर्ग को दूर करता है और उपसर्गकर्ता भैरव को पराजित करता है। इस विजय के फलस्वरूप मणिभद्र यक्ष की तपागच्छ के अधिष्ठाता रूप में स्थापना हो जाती है और उसे बहुमान दिया जाता है। इसीलिए तपागच्छ में जो साधु होते हैं उनके नाम के साथ 'विजय' शब्द जोड़ा जाने लगा। इस काव्य में धर्म-प्रभावना को महत्त्व दिया गया है। वीर, शान्त, रौद्र, करुण और भयानक रसों का इसमें समावेश है। यमक और अनुप्रास अलङ्कारों का सुन्दर प्रयोग है। प्रकृति-चित्रण और ऋतु-वर्णनादि महाकाव्योचित है। सहायक कथा प्रसङ्गों का भी चित्रण है। भाषा प्रौढ़ है। मणिभद्र के सम्बन्ध में जानने के लिए यह काव्य पठनीय है। २. वरंगचरिउ (वराङ्गचरितम्) मूल लेखक- पं० तेजपाल, सम्पादन एवं हिन्दी अनुवाद- डॉ० सुमत कुमार जैन, प्राकृत अध्ययन शोध केन्द्र, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, जयपुर, प्रकाशक- श्री कुन्दकुन्द कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, मुम्बई-५६, मूल्य- रु० १२०, पृ० २३८। अप्रकाशित दुर्लभ पाण्डुलिपि का यह प्रथम प्रकाशन है। वरंगचरिउ के मूल नायक वराङ्गकुमार का जन्म जैन तीर्थङ्ककर नेमिनाथ के समय हुआ था। सर्वप्रथम सातवीं शताब्दी में जटासेन नन्दि ने उनके व्यक्तित्व पर संस्कृत में महाकाव्य लिखा। अपभ्रंश भाषा के कवि तेजपाल की यह अपूर्व कृति है। धन की प्रतिष्ठा करने वाला यह उत्तम चरित काव्य है। सामाजिक मूल्यों की रक्षा कैसे करें इसकी
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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