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________________ तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित सप्तभंगी एवं स्याद्वाद : १५ प्रकार प्रथम और तृतीय भङ्ग को मिला देने अर्थात् स्वचतुष्ट्य की अपेक्षा वस्तु है और युगपद् वस्तु कथन की सामर्थ्य न होने से वस्तु अवक्तव्य है, यह पञ्चम भङ्ग है। पुनः द्वितीय और तृतीय भङ्ग को मिला देने पर अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु नहीं है और युगपद् वस्तु कथन का सामर्थ्य न होने से वस्तु अवक्तव्य है, यह षष्ठ भङ्ग है। तदनन्तर प्रथम, द्वितीय और तृतीय - इन तीनों भङ्गों को एक साथ मिला देने पर अर्थात् स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु है, परचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु नहीं है और युगपद् कथन का सामर्थ्य न होने से वस्तु अवक्तव्य है, यह सप्तम भङ्ग है। इस प्रकार तीन वस्तु-स्वरूपों का कथन उक्त सात प्रकार से किया जा सकता है, आठ या नौ प्रकार से नहीं। आचार्य समन्तभद्र ने सात भङ्गों का विवेचन इस प्रकार किया है कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तयोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ।। सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। क्रमार्पितद्वयात् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः। अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः।। अर्थात् वस्तु कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है। इसी प्रकार अपेक्षाभेद से वस्तु उभयात्मक है और अवाच्य भी है। यह कथन नय की विवक्षा से है, सर्वथा नहीं है। स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से सब पदार्थों को सत् कौन नहीं मानेगा? और पररूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से सब पदार्थों को असत् कौन नहीं मानेगा? दोनों धर्मों की क्रम से विवक्षा होने पर वस्तु उभयात्मक है और युगपद् विवक्षा होने पर कथन की असामर्थ्य के कारण वस्तु अवाच्यरूप है। इसी प्रकार 'स्यादस्ति अवक्तव्य' आदि तीन भङ्ग भी अपने-अपने कारणों के अनुसार बन जाते हैं। इस प्रकार कुल सात भङ्ग होते हैं। अब प्रश्न यह है कि भङ्ग सात ही क्यों होते हैं? इसका समाधान करते हुए प्रो. उदयचन्द्र जैन लिखते हैं कि- वस्तु में सात प्रकार के प्रश्न होते हैं। इसीलिए (आचार्य अकलङ्कदेव ने) 'प्रश्नवशात्' ऐसा कहा है। सात प्रकार के प्रश्न होने का कारण यह है कि वस्तु में सात प्रकार की जिज्ञासा होती है। सात प्रकार की जिज्ञासा होने का कारण सात प्रकार का संशय है और सात प्रकार का संशय इसलिए होता है कि संशय का विषयभूत धर्म सात प्रकार का है। प्रत्येक वस्तु में नय की अपेक्षा
SR No.525076
Book TitleSramana 2011 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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