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सभी विरोधों का समाधान हैः अनेकान्तवाद
एवं स्याद्वाद
प्रो० सुदर्शन लाल जैन अनेकान्तवाद क्या है? यह एक अतिगम्भीर विषय पर विद्वान् लेखक का शास्त्रीय तथा व्यावहारिक चिन्तन है। पूर्ववर्ती जैनेतर मनीषियों ने इसे ठीक से समझने का प्रयत्न तो नहीं किया, परन्तु उपयोग किया। यह एक सार्वभौमिक और परम उपयोगी सिद्धान्त है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत सौदामनी' में अनेकान्त के नाम से प्रकाशित लेख का यह परिष्कृत रूप है। लेख बहुत उपयोगी है और प्रचार के योग्य है।
-सम्पादक दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में पाए जाने वाले विरोधों का. समाधान सम्यक् अनेकान्तवाद या स्याद्वाद या सापेक्षवाद के द्वारा ही सम्भव है। क्योंकि ज्ञान अनन्त है और हमारे ज्ञान की मर्यादाएँ हैं। एकान्तवाद की दृष्टि से वस्तु के सम्पूर्ण अंशों को नहीं जाना जा सकता है। स्याद्वाद या अपेक्षावाद (दृष्टि विशेष) के द्वारा हम वस्तु के समग्र रूप को जान सकते हैं। भगवान् महावीर के दार्शनिक सिद्धान्तों के मूल में उनका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के द्वारा उन्होंने परस्पर विरोधी दिखलाई देने वाले एकान्तवादी सिद्धान्तों का सम्यक् समन्वय स्थापित किया है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जब भगवान् महावीर का जन्म हुआ था तथा उस समय नित्यवाद, उच्छेदवाद आदि अनेक दार्शनिक मत-मतान्तर प्रचलित थे; उनमें सत्य क्या है? इसकी खोज भगवान् महावीर ने ध्यान के माध्यम से की थी। उन्होंने ध्यान के माध्यम से इस तथ्य का साक्षात्कार किया कि एकाङ्गी दृष्टि कभी भी वस्तु तत्त्व के समग्र रूप को प्रकाशित नहीं कर सकती है। प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते हैं जिनका हम युगपत् भाषा के माध्यम से कथन नहीं कर सकते हैं। सापेक्षिक कथन द्वारा ही हम वस्तु के समग्र रूप का विश्लेषण कर सकते हैं; क्योंकि भाषा निरपेक्ष रूप से वस्तु के समग्र रूप को अभिव्यक्त नहीं कर सकती है। भाषा के माध्यम से जो कुछ भी कहा जाता है वह किसी न किसी सन्दर्भ-विशेष में कहा जाता है। अतः उसे सन्दर्भविशेष की दृष्टि से ही देखना चाहिए, समग्र दृष्टि से नहीं। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि हम वस्तु को किस दृष्टि से देख रहे हैं?, कहाँ देख रहे हैं?, किस काल में देख रहे हैं?, कौन देख रहा है? आदि। इन सब प्रश्नों का समाधान अनेकान्तवाद में ही है, एकान्तवाद में नहीं। एकान्तवाद कब सम्यक् होता है और कब मिथ्या? अनेकान्तवाद कब सम्यक् है और कब मिथ्या? इन सब बातों का विचार जैन ग्रन्थों