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________________ ९० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून २०११ जो कुछ भी हो, आज दक्षिण भारत में अनेक शिलालेख तथा कलापूर्ण विशाल जैन मन्दिर विद्यमान हैं। पं० आशाधर जी (वि० सं० १३००) के 'अनगारधर्मामृत' में जिन मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख आया है उनमें द्रव्यलिङ्गी दिगम्बर मठाधीश मुनियों को भी गिनाया है, जिससे ज्ञात होता है कि १३वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में मठवासी भट्टारक दिगम्बर मुनियों का वर्चस्व हो गया था। उस समय प्रतिद्वन्द्वी सम्प्रदायों के साथ दिन-रात चलने वाले संघर्ष के परिणामस्वरूप जैनधर्म में अनेक विकृतियाँ पनप गईं थीं। दसवीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट तथा गंग राजवंशों के पतन के बाद जैनधर्म अपने आप को सम्हाल नहीं सका। तमिल के नयनारों की तरह ही बारहवीं शताब्दी के मध्य में वीर शैव धर्मावलम्बी वसव ने कर्नाटक में भी जैनधर्म के पतन में अहम भूमिका निभाई। फिर भी पन्द्रहवीं शताब्दी तक कर्नाटक में जैनधर्म की लोकप्रियता बनी रही। १६-१७वीं शताब्दी में दक्षिण भारत और पूर्वी भारत में कहीं भी जैनधर्म का प्रभाव बढ़ता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता है क्योंकि अन्य धर्मों का प्रभाव यहाँ भी व्यापक रूप ले चुका था। जहाँ तक दक्षिण भारत में जैनधर्म के अस्तित्व का प्रश्न है, वहाँ विशेषकर कर्नाटक जैनधर्म का प्रमुख गढ़ रहा है। दक्षिण भारत से हमें विपुल शिलालेखी प्रमाणों के अतिरिक्त जैनधर्म के आधार स्तम्भरूप ग्रन्थकर्त्ता आचार्यों का अस्तित्व मिलता है। कुछ प्रमुख रचनाकार हैं १. कुन्दकुन्दाचार्य (ई० प्रथम शताब्दी) - कुछ इन्हें पारवर्ती मानते हैं। ये दिगम्बर जैनियों के आज भी आदर्श हैं। इसीलिए उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने आपको कुन्दकुन्दान्वयी बतलाया है। तमिल, कन्नड तथा तेलगु भाषा-भाषी इन्हें अपने-अपने प्रदेश से सम्बद्ध करते हैं। इन्होंने जैन अध्यात्म को एक नई दिशा दी है जो सभी को मान्य है। शौरसेनी प्राकृत में रचित इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं- पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार और अष्टपाहुड । इन पर उत्तरवर्ती टीकाकारों ने संस्कृत, कन्नड, हिन्दी आदि में अनेक टीकाएँ लिखी हैं। अमृतचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका बहुत प्रसिद्ध है। २. आचार्य उमास्वाति (उमास्वामी)- ये कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य तथा जैनियों में संस्कृत के आद्य सूत्रकार हैं। इनका बाइबिल तथा भगवद्गीता की तरह प्रसिद्ध ग्रन्थ है- तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगमसूत्र । इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं। इस पर दक्षिण के ही पूज्यपाद, अकलङ्कदेव तथा विद्यानन्दी ने संस्कृत में विशाल टीका- ग्रन्थ लिखे हैं। ३. समन्तभद्राचार्य- श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने आपको 'वादिमुख्य' कहा है।
SR No.525076
Book TitleSramana 2011 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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