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138 : Sramana, Vol 62, No. 1 January-March 2011
स्याद्वाद सिद्धान्त सभी की अनिवार्यता जैनधर्म की उदात्त विचारधारा-स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों के परिणाम स्वरूप आज विश्व ने इसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया है। भौतिक विज्ञान तथा तर्क के द्वारा भी इसके सिद्धान्तों की पुष्टि होती है। विश्वबन्धुत्व की भावना को स्याद्वाद-सिद्धान्त के माध्यम से पल्लवित किया गया है। स्याद्वादसिद्धान्त अनिश्चयात्मक या संशयात्मक नहीं है। अपितु एक निश्चयात्मक विचारदृष्टि को दर्शाता है। ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है जो इस सिद्धान्त को बिना स्वीकार किए अपने पक्ष को रख सकता हो। एक ओर वेदान्त दर्शन एकमात्र नित्य चिदात्मक ब्रह्म की सत्ता को मानता है और दृश्यमान् जगत् को मायाजाल कहता है, दूसरी ओर चार्वाक दर्शन मात्र भौतिक तत्त्वों की सत्ता को स्वीकार करके चैतन्य की उत्पत्ति उन्हीं का परिणमन मानता है। जैन धर्म जीव और अजीव (चित् और अचित्) दोनों की सत्ता स्वीकार करता है परन्तु वह उन्हें सांख्य दर्शन की तरह दो मौलिक तत्त्व अथवा चित्-अचित् रूप विशिष्टाद्वैत न मानकर छह द्रव्यों की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है। साथ ही प्रत्येक द्रव्य को त्रिगुणात्मक (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप) स्वीकार करता है। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म वेदान्त की तरह न तो सत्ता को सर्वथा नित्य मानता है और न बौद्धों की तरह क्षणिक। अपितु जैन धर्म दोनों सिद्धान्तों का विधिवत् सयुक्तिक समन्वय स्थापित करता है। आपको यह स्पष्ट कर दूँ कि बौद्ध, वेदान्त आदि दर्शनों में भी जब उनके सिद्धान्तों में विरोध उत्पन्न होता है तो वे दो (परमार्थिक और संवृति सत्य) या तीन प्रकार की (पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक) सत्ता को स्वीकार करके अपने पक्ष में समागत विरोधों का समन्वय करते हैं। जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त भी नित्यअनित्य आदि विरोधों का समन्वय निश्चयनय-व्यवहारनय या द्रव्यार्थिकनयपर्यायार्थिकनय द्वारा करता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जैन धर्म मात्र एकान्तरूप मिथ्यादृष्टियों का समन्वय करता है। अपितु विभिन्न दृष्टियों से देखने पर तत्त्व हमें विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होता है। इस विविध दृष्टिगोचरता को उजागर करते हुए जैनधर्म में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद तथा निक्षेपवाद आदि का प्रतिपादन किया गया है। जैनधर्म की कसौटी अपरिग्रह और अहिंसा संसार में सुख-शान्ति स्थापित हो इसके लिए जैन तीर्थकरों ने स्याद्वाद के अतिरिक्त अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों को बतलाया है। अपरिग्रह का वास्तविक अर्थ है 'वीतरागता और उसका परिणाम है 'अहिंसा'। जैनधर्म के समस्त आचार और विचारों की कसौटी अहिंसा और अपरिग्रह ही है। यदि किसी धार्मिक आचरण में मन, वचन, काय से अहिंसा और अपरिग्रह की परिपुष्टि नहीं होती है तो वह सदाचार नहीं