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________________ पुण्यकुशलगणि विरचित भरतबाहुबलिमहाकाव्य में जैनधर्म एवं दर्शन : ४७ पुण्यशाली श्रावक महाव्रतधारी मुनि बन जाते हैं। बाहुबली जैसे अद्वितीय योद्धा भी युद्ध - विजय को मानवता की अवहेलना समझकर महाव्रतधारी मुनि हो जाते हैं। उन्हें संयम में संलग्न देखकर चक्रवर्ती भरत भी उनके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। वे उनसे निवेदन करते हैं कि हे शान्तरस के नायक ! मैं अपराधी हूँ, इसलिए मेरी जीभ कुछ कह नहीं पा रही है। हे सुमते ! ग्रीष्म-: ऋतु से तप्त मेरी अभिमत सरिता को आप पानी से भर दें। चक्रवर्ती के इस प्रकार के दीन-वचन सुनकर भी बाहुबली मुनि मौन बने रहे क्योंकि जिन व्यक्तियों का हृदय आसक्ति से रहित है वे राजाओं को भी तृण के समान तुच्छ समझते हैं।२५ इस महाकाव्य में भगवान् ऋषभदेव का विस्तृत गुणगान किया गया है। वे प्रथम तीर्थंकर कहलाते हैं। उनके पश्चात् तेईस तीर्थंकर और हुए हैं। उनमें तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर की ऐतिहासिकता सर्वमान्य है। इनके अतिरिक्त बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ या अरिष्टनेमि को भी विद्वान् ऐतिहासिक मानते हैं। वे श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे। जैन - पुराणों में भी इन्हीं चार तीर्थंकरों के विशेष, विस्तृत, प्रामाणिक एवं प्राचीन विवरण प्राप्त होते हैं। इन सभी तीर्थंकरों ने धर्म में अहिंसा, संयम और तप को विशेष महत्त्व दिया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय,. . ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को श्रमणों के लिए महाव्रत के रूप में आवश्यक माना है तथा श्रावकों के लिए भी इन व्रतों का आंशिक रूप से पालन करना अनिवार्य है। ये ही पांच व्यक्तिभेद से महाव्रत एवं अणुव्रत कहलाते हैं। इन व्रतों का महत्त्व दार्शनिक दृष्टि से भी है। जैनधर्म निरीश्वरवादी है। इस धर्म में सृष्टि के कर्ता, पालनकर्ता और संहर्ता के रूप में ईश्वर की अवधारणा को नहीं माना गया है। यह धर्म तो पुरुषार्थवादी है। श्रमण संस्कृति में मनुष्य ही अपने पुरुषार्थ के द्वारा ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। अतः कोई भी मनुष्य श्रम के द्वारा श्रमण बन कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है। अतः श्रमण-धर्म उदारवादी है। इसमें जैनेतर व्यक्ति भी दीक्षित हो सकता है। सभी जैन तीर्थंकर क्षत्रिय थे। यही इस धर्म की विराटता का प्रबल प्रमाण है। महावीर के अनेक शिष्य ब्राह्मण थे। अतः इस धर्म में जाति- बन्धन नहीं है। आज भी अनेक जैन मुनि जैनेतर जाति के हैं। जैन-धर्म में कर्म-मीमांसा प्रमुख है। जो जैसा कर्म करता है वह वैसा फल पाता है। शुभ कर्मों का शुभ परिणाम होता है और अशुभ कर्मों का
SR No.525074
Book TitleSramana 2010 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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