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________________ पुण्यकुशलगणि विरचित भरतबाहुबलिमहाकाव्य में जैनधर्म एवं दर्शन : ४५ के प्रभाव से युद्धोन्माद से विरत होकर केवलज्ञानी हो गये। इस महाकाव्य में "धर्म" को पुण्य का प्रतीक बताया है जो मानवमात्र की उन्नति करने वाला होता है। इसके विपरीत अधर्माचरण पापकारक होता है। पापी पाप के कारण अधःपतन की ओर अग्रसर होकर अपना सर्वस्व खो देता है। इसी तथ्य को महाकवि ने प्रकारान्तर से बताया है कि सेना के आगे चलने वाले घोड़ों के खुरागों से ऊपर उठती हुई धूल उन घोड़ों के पीछे चलने वाले मदोन्मत्त हाथियों के मद-जल से वैसे ही नीचे गिरा दी जाती है जैसे भले व्यक्ति पाप के कारण नीचे गिर जाते हैं। पुण्य परोपकार से होता है। पुण्यवान् जीव ऐसी संरचना करते हैं जो दूसरों के लिए प्रेरणादायक होती है। भगवान् का मन्दिर सभी के लिए दर्शनीय एवं वन्दनीय होता है। क्योंकि उसमें ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर आदि तीर्थंकरों की प्रतिमाएं होती हैं। उन प्रतिमाओं से अलंकृत जैन-मन्दिर वैसे ही सुशोभित होते हैं जैसे पुण्य के अतिशय से जीवन, आत्मा से देह और कमल से तालाब सुशोभित होते हैं। महाराज भरत भी बाहुबली के राज्य के सीमान्त प्रदेश में स्थित एक मन्दिर को देखकर हाथी से नीचे उतर गये। उन्होंने उत्तरासंगविधि करके अर्थात् स्नान कर एवं साधारण धवलवस्त्र धारण कर मन्दिर में प्रवेश किया और तीन बार भगवान् की प्रदक्षिणा कर पंचांग (दोनों हाथ, दोनों घुटनों तथा मस्तक को जमीन पर रखकर) नमस्कार किया। क्योंकि तीर्थकर को पावन हृदय से नमस्कार करने से चक्रवर्ती राजा भी अन्य राजाओं से नमस्कृत होते हैं। जिनेन्द्र-दर्शन से पाप की वैतरणी सूख जाती है और उसमें पुण्य-सलिल बहने लगता है। यह संसार-समुद्र तो कषाय रूपी मत्स्यों से भरा हुआ है। वस्तुतः यह काम-वासनाओं के कल्लोलों से अत्यन्त दारुण संसार-सागर तभी पार किया जा सकता है जब जिनेन्द्र-प्रतिमा रूपी नौका उपलब्ध हो।१५ देव-मन्दिर हमारे देश की संस्कृति के धरोहर हैं। अत: महाकवि ने जैन-मन्दिरों के निर्माण की प्रेरणा दी है।१६ इस विचित्र संसार में कुछ मनुष्य अप्राप्त भोगों की कामना करते हैं और कुछ प्राप्त सभी भोगों को छोड़कर कैवल्यरूपी वधू का वरण करते हैं।१७ ऐसे त्यागी-यशस्वी जनों के शान्तरस का सूर्य चित्तवृत्तिरूपी उदयाचल को प्राप्त कर उदित होता है तो वह भव्य जीवों के हृदयरूपी कमलों को विकसित कर देता है।१८ महाराज भरत भी मन्दिर में स्थित विद्याधर मुनि को देखकर वैराग्य-भाव से भरकर कहते हैं कि हे मुनि! मैं भी आप
SR No.525074
Book TitleSramana 2010 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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