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________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर-२०१० ध्यान : एक अनुशीलन डॉ. रूबी जैन [ इस लेख में लेखिका ने आगम का सहारा लेकर ध्यान को परिभाषित किया है। तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित ध्यान-विवेचन से यह लेख मेल खाता है।] जैनदर्शन में मोक्ष को ही जीव का परम लक्ष्य माना गया है। परन्तु कर्मबन्ध इस मोक्ष-प्राप्ति में बाधक तत्त्व है। इसी मोक्ष एवं कर्मबन्ध के परिप्रेक्ष्य में जैन साहित्य में ध्यान का विशद विवेचन उपलब्ध होता है। 'ध्यान' भ्वादिगण की 'ध्यै' धातु से 'ल्युट' प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। 'ध्यै' धातु सोचने, मनन करने, विचार करने, चिन्तन करने आदि अर्थों में प्रयुक्त होती है। ल्यूट प्रत्यय पूर्वक इसका अर्थ मनन, विमर्श, विचार तथा चिन्तन है।२ पातञ्जल योग दर्शन में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ 'धारावाहिक विचारणा' में हुआ है। जो कि 'धारणा' एवं 'समाधि' के साथ मिलकर 'संयम' का वाचक माना गया है। परन्तु तदनुसार ध्यान केवल सुध्यान का ही वाचक प्रतीत होता है जबकि ध्यान शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुसार तो ध्यान अच्छा भी हो सकता है तथा बुरा भी। इसमें गीता भी प्रमाण है जहाँ कहा गया है कि 'ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते' अर्थात् विषयों के चिन्तन से व्यक्ति में उनके प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है। अत: स्पष्ट ही है कि ध्यान ऐन्द्रिक विषयों के प्रति भी हो सकता है जो कि समाधि तथा आत्मस्वरूप प्राप्ति का बाधक होता है तथा इसके विपरीत आत्मरमण रूपी ध्यान समाधि रूप है जो कि सर्वथा ग्राह्य है। जैनदर्शन के मान्य आचार्य, तत्त्वार्थ-सूत्रकार के अनुसार ध्यान का लक्षण “एकाग्र-चिन्ता-निरोध' है।६ चिन्ता अन्त:करण का व्यापार कहा गया है तथा गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटकने वाली चित्तवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेश में दीपशिखा अपरिस्पन्द (स्थिर) रहती है उसी तरह निराकुल देश में एक लक्ष्य बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गई चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेप के वहीं स्थिर * डी.ए.वी. कालेज, होशियारपुर।
SR No.525074
Book TitleSramana 2010 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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