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आचार्य हेमचन्द्र काव्यशास्त्रीय परम्परा में अभिनवगुप्त के प्रतिकल्प : १३
उक्त तर्कों के द्वारा उन्होंने स्थायी भावों की स्थायिता का समर्थन किया। कदाचित् हेमचन्द्राचार्य को भोजराज को प्राप्त अग्निपुराण का अहमागम या अहंकारागम रुचिकर नहीं लगा और रस के लिए प्रयुक्त शृङ्गार शब्द भी। इसीलिए शारदातनय ने भी अपने ग्रन्थ को 'भावप्रकाश' कहना अधिक उपयुक्त माना, शृङ्गारप्रकाश नहीं। भोजराज ने सरस्वतीकण्ठाभरणालङ्कार में भी अग्निपुराण के इस आगम को मान्य माना था। हेमचन्द्राचार्य यहाँ इस आगम की चर्चा कर सकते थे, किन्तु आश्चर्य की बात है कि इस आगम की चर्चा साहित्यशास्त्र के किसी भी आचार्य ने नहीं की। यहाँ तक कि स्वयं भोज भी इस आगम का उल्लेख नहीं करते, जबकि यह आगम इन्हीं के वंश के पुराण अग्निपुराण में मिलता है और इसी को वे शृङ्गारैकरसवाद सरस्वतीकण्ठालङ्कार में भी अपनाते हैं। आनन्दवर्धन ने पर्यायोक्त, आक्षेप आदि जिन अलंकारों में ध्वनि के अन्तर्भाव का खण्डन किया है, उनमें ध्वनि के अन्तर्भाव का पक्ष केवल अग्निपुराण में मिलता है। महामहोपाध्याय काणे, पद्मविभूषण डॉ. डे और पद्मभूषण डॉ. वेंकटराम राघवन् आदि आज के विद्वानों के ही समान कदाचित् प्राचीन विद्वानों में भी अग्निपुराण के आगम होने में सन्देह था। वस्तुस्थिति यह है कि अग्निपुराण आगमों का संग्रह है। इसमें परवर्ती आगम भी बाद में जोड़ दिए जाएँ तो पूर्ववर्ती आगम अमान्य नहीं हो सकते, किन्तु हम अवश्य ही आत्मविस्मरण के विषम विष से प्रभावित हैं और हमारे अग्रणी आचार्य भी इस विष से प्रभावित लगते हैं। इसीलिए बोधवारिधि जैसे यथार्थ विरुद से अलंकृत महापुरुष अभिनवगुप्त साहित्यागम के ही समान, क्यों नहीं प्रस्तुत करते अपना स्वयं का आगम शिवागम, रसनिष्पत्तिप्रक्रिया के सन्दर्भ में। स्वयं शिवागम की रसनिष्पत्तिप्रक्रिया पहले पहल प्राप्त होती है शारदातनय के भावप्रकाशन में। यद्यपि अभिनवभारती के मङ्गल पद्य में पीठिका की यही प्रक्रिया है, तथापि वह उद्गार मात्र है, निरूपण नहीं। हमने यह प्रक्रिया अपने 'अलं ब्रह्म' ग्रन्थ में दे दी है। हेमचन्द्राचार्य भी इस कमी से मुक्त नहीं कहे जा सकते, यद्यपि वे भी वस्तुत: कलिकाल सर्वज्ञ हैं। वे अपने जैन आगम की रसनिष्पत्ति प्रक्रिया दे सकते थे। किन्तु उनकी पदावली इस सन्दर्भ में लगभग वही है जो ध्वनिवाद में मिलती है। यद्यपि सत्त्वपरिभाषा में वे भरतमुनि से अधिक प्रभावित हैं। पण्डितराज जगन्नाथ के समान वे स्वयं कहते हैं कि भरत केवल मान्य आचार्य हैं। उनका यह वचन भरतमुनि के प्रति उनके असाधारण आदर का प्रमाण है