SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में शांति की अवधारणा : ५९ यहां तक कि न्यायपूर्ण और सुरक्षित ढंग से युद्ध लड़ने के लिए अनेक तरीकों और उपायों के सुझाव प्रस्तुत किए हैं। भरत और बाहुबली के बीच हुई लड़ाई ऐसे अहिंसक - युद्ध का श्रेष्ठ उदाहरण है। यद्यपि कुछ अन्य प्रकार की हिंसा भी हमारे जीवन में अपरिहार्य होती है, किन्तु इस आधार पर हमें इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए कि वर्तमान समय में अहिंसापूर्ण आचरण प्रासंगिक नहीं है। जिस प्रकार से जीवन के लिए आवश्यक हिंसा अपरिहार्य है, उसी प्रकार से जहाँ तक मानवजाति के अस्तित्व का सम्बन्ध है, वह पारस्परिक सहयोग, एक-दूसरे के प्रति त्याग एवं सम्मान की भावना पर निर्भर करता है। यदि सामाजिक-जीवन के लिए ये गुण- तत्त्व अनिवार्य हैं, तो हम कैसे कह सकते हैं कि अहिंसा, मानव-जीवन के लिए प्रासंगिक नहीं है। समाज हिंसा पर नहीं, अपितु अहिंसा पर और केवल अपने अधिकारों के लिए मांग करने पर नहीं, अपितु दूसरों के अधिकारों को स्वीकार करने के लिए अपने कर्त्तव्य पर खड़ा होता है। इस प्रकार अहिंसा मानव-समाज के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य सिद्धान्त है। वर्तमान समय परमाणु हथियारों का युग है, जिसके कारण मानवजाति का अस्तित्व खतरे में है । आचारांगसूत्र (ईसा पूर्व चौथी शताब्दी) में श्रमण भगवान् महावीर उद्घोषित करते हैं-' अस्थि सत्थंपरेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं, ' अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ हो सकता है, परन्तु अहिंसा से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। अनुपालना द्वारा ही मानव जाति को बचाया जा सकता है। सभी प्राणियों के प्रति समादर भाव द्वारा ही मानव-समाज में शांति और सद्भाव की पुनर्स्थापना हो सकती है और जान-माल की रक्षा की जा सकती है। सभी धर्मों और विचारधाराओं के प्रति समादर भाव केवल अहिंसा की पारस्परिक- विश्वास, धार्मिक मतान्धता या असहिष्णुता हमारे युग का एक और अभिशाप है। जैनधर्म अपने आरम्भिक काल से ही मानव-समाज की शान्ति, सद्भाव और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाता आया है, और इन्हीं सार्वभौमिक मूल्यों में विश्वास करता है। अपने अस्तित्व के सम्पूर्ण ऐतिहासिक - काल - क्रम में दूसरों की आस्थाओं और धार्मिक विचारधाराओं के प्रति उसका दृष्टिकोण सदैव ही सहिष्णु और सम्मानजनक रहा है। जैनधर्म के इतिहास में धार्मिक टकराहट का मुश्किल से ही ऐसा कोई उदाहरण मिलता है, जिसमें धर्म के नाम पर हिंसा और रक्तपात हुआ हो। वह तो सदैव वैचारिक मतभेदों की चर्चा कर अनेकांत दृष्टि से उन्हें सुलझाने का ही प्रयत्न करता रहा है। जैनाचार्यों की शिक्षा यह है कि दूसरों की -
SR No.525072
Book TitleSramana 2010 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy