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________________ ५२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१० पुरुष, शान्ति या समता या समभाव की साधना के रूप में धर्म का प्रतिपादन करते हैं। शान्ति या चित्त की शान्त अवस्था, धार्मिक-साधना का केन्द्रीय तत्त्व है, क्योंकि यह प्राणीजगत् और मानवजाति का मूलभूत स्वभाव है। एक अन्य जैन-धार्मिक ग्रन्थ भगवतीसूत्र में श्रमण भगवान् महावीर और उनके ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति गौतम के बीच हुए संवाद का वर्णन मिलता है जिसमें एक प्रश्न के अन्तर्गत गौतम पूछते हैं- "भगवन्! आत्मा का स्वभाव क्या है?" महावीर उत्तर देते हैं-"आत्मा का स्वभाव शांति या समता है। गौतम पुनः पूछते हैंभगवन्! आत्मा का चरम लक्ष्य क्या है?" महावीर उत्तर देते हैं-'गौतम! आत्मा का चरम लक्ष्य भी शान्ति या समता या समभाव-अवस्था को प्राप्त करना है।" सूत्रकृतांग में शान्ति शब्द को मुक्ति के समतुल्य माना गया है। इस प्रकार शांति, आत्मा का मूलभूत स्वभाव, अर्थात् स्व-स्वभाव होने से, जैनाचार्यों ने इसे जीवन का चरम लक्ष्य निरूपित किया है। जैनधर्म की दृष्टि में स्व-स्वभाव या चित्त की शांत अवस्था का बोध करने की साधना ही धर्म है। धर्म अपने मूलभूत स्वभाव की अनुभूति करने का साधन है, जो साधन चित्त के समाधिस्थ या साक्षीभाव के रूप में स्थित होने से है। इस अवस्था में चित्त बाहरी-हलचलों से अप्रभावित रहता है। यह विशुद्ध आत्मभाव- अवस्था है, जिसे जैनधर्म की तकनीकी शब्दावली में 'सामायिक' शब्द के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था में आत्मा बाहरी-स्फुरणों, आवेगों और संवेगों तथा कषाय-भावों में पूर्णतया मुक्त रहती है। आध्यात्मिक-आनंद, जो कि चित्त की शांत-अवस्था का एक सकारात्मक-पहलू भी है, की अनुभूति करने की पहली शर्त मानसिक-तनावों से मुक्त होना है, अर्थात् आत्मा का विभाव से स्वभाव में स्थित होना या विकारी-भावों से रहित होना है। कोई भी व्यक्ति, तनाव में रहना नहीं चाहता है। वह बेचैनी में नहीं, अपितु मानसिक-शान्ति से जीना चाहता है। यह तथ्य बताता है कि मानसिक-शान्ति के लिए, हमारा मूलभूत स्वभाव चित्त में सक्रिय रहता है। वस्तुतः, धर्म इस शान्त-स्थिति, अर्थात् मानसिक-शान्ति को पाने का मार्ग होने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जैनधर्म के अनुसार जैनाचार्यों का यह कर्त्तव्य है कि वे व्यक्तिगत-स्तर पर मानसिक-शान्ति और सामाजिक-स्तर पर शान्तिपूर्ण वातावरण को पुनर्स्थापित करने के लिए, साधनापथ और आचरण-संहिता की दृष्टि से मानव-समाज का मार्गदर्शन करें। चैत्तसिक-शान्ति या मानसिक-शान्ति या तनावरहित-अवस्था को प्राप्त करने के लिए, जैनधर्म में सामायिक करने का निर्देश किया गया है। जैनधर्म में साधु एवं
SR No.525072
Book TitleSramana 2010 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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