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श्रमण, वर्ष ६१, अंक २
अप्रैल-जून २०१०
जैन साहित्य में वर्णित वास्तु कला : एक समीक्षात्मक अध्ययन
डॉ. हुकुमचन्द जैन __डॉ. इन्दुबाला जैन
[वास्तु शास्त्र आज सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रचलित शास्त्रों में से एक है। जैन साहित्य में वास्तु विद्या के अनेकशः उल्लेख मिलते हैं। अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार, प्रासादमंडन आदि जैन ग्रन्थ वास्तु-शिल्प पर प्रमुखतया प्रकाश डालते हैं। वैसे तो जैन-सिद्धान्तों के अनुसार वास्तु हेय है क्योंकि इससे मोह उत्पन्न होता है, प्राणी कामार्त हो जाता है, किन्तु आज के भौतिक युग में इसका महत्त्व काफी बढ़ गया है। आज भी जैन मन्दिरों आदि का निर्माण बिना वास्तु के सम्भव नहीं है। प्रस्तुत लेख जैन सहित्य में वास्तु विद्या के प्रकीर्ण सन्दर्भो और उनकी उपादेयता पर सम्यक् प्रकाश डालता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज में जीवनयापन करने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। मनुष्य को सुखी जीवन बिताने के लिए वास्तुयुक्त मकान एवं जमीन की आवश्यकता होती है। वास्तु और कला से मिलकर वास्तुकला शब्द बना है जिसका अर्थ निम्रवत है
कला-भौतिक पदार्थों में कला ही सौन्दर्य एवं सजीवता की सृष्टि करती है। सौन्दर्य सृष्टि अथवा भावनाओं की सजीव, साकार और मौलिक अभिव्यक्ति कला है, साहित्य के क्षेत्र में कला को ललित कला कहा गया है। कलाकारों ने ललित-कलाओं को पाँच भागों में विभाजित किया है- काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति और वास्तुकला । भौतिक आधार होने के कारण वास्तुकला को जैन दृष्टि से निकृष्ट कहा गया है किन्तु भौतिक युग में इसे भौतिक सुख एवं वैभव का आधार माना गया है।
वास्तु का अर्थ- प्राणियों के निवास स्थान को वास्तु कहा गया है। पाइयसद्दमहण्णव में वत्थु का अर्थ 'घर' या 'गृह' या गृह-निर्माण शास्त्र दिया • सह-आचार्य, जैनोलॉजी एण्ड प्राकृत विभाग, मोहललाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर।