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जिज्ञासा और समाधान : १०१
का अंशतः पाठभेद बना रह गया। इसके बाद दंवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वलभी में एक तीसरा सम्मेलन (वी.नि. सं. ९८० - ९९३) हुआ। इसमें जिसे जो याद था उसे पुस्तकारूढ़ कर दिया गया।
इधर दिगम्बर परम्परानुसार महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद (ई. सन् प्रथम शताब्दी मध्यकाल) गिरनार पर्वत की चन्द्र गुफा में तपस्या में लीन आचार्य धरसेन के पास (महाराष्ट्र में स्थित नगरी) आचार्य अर्हवलि ने पुष्पदंत और भूतबलि नामक दो शिष्यों को भेजा। वहाँ कुछ पूर्वों का ज्ञान प्राप्त कर दोनों ने मिलकर षट्खण्डागम ग्रन्थ को लिपिबद्ध किया। इसके बाद गुणधर ने कसायपाहुड और आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसारादि ग्रन्थों की रचना की। यही आज दिगम्बर परम्परा के मान्य आगम हैं । दिगम्बरों ने सभी अंग आगम ग्रन्थों और उपाङ्ग आगम ग्रन्थों का लोप स्वीकार कर लिया, जो एक बड़ी भूल हुई।
इधर उत्तर भारत में अकाल की विशेष परिस्थितियों में स्थूलभद्र के संघ ने अपवाद स्वरूप वस्त्रादि ग्रहण करके कुछ नियमों में शिथिलता को स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप आगे चलकर (ई.सन् प्रथम शताब्दी) श्वेताम्बर, दिगम्बर भेद बन गए और दोनों की गुर्वावलियाँ भिन्न हो गईं। प्रारम्भिक मतभेद साधु के वस्त्र को लेकर था। गुरु और शास्त्र में मतभेद होने पर भी बहुत समय तक एक ही प्रकार की मूर्ति की दोनों उपासना करते रहे परन्तु बाद में आराध्य में भेद न करके मूर्तियों की संरचना में अन्तर कर दिया गया। कुछ मान्यताओं में तथा कुछ बाह्य क्रियाओं आदि में बाह्य मतभेद होने पर भी बौद्धों की तरह दार्शनिक सिद्धान्तों (छह द्रव्य, सात तत्त्व, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, पांच महाव्रत, अहिंसा, वीतरागता आदि) में मतभेद नहीं हुए ।
इस ऐतिहासिकता को दृष्टि में रखकर परम्पराओं की भिन्नता को निम्न सारणी द्वारा दर्शाया जा सकता है
श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत १. सवस्त्र मुक्ति होती है। २. स्त्रीमुक्ति (उसी पर्याय में) संभव है।
३. गृहस्थावस्था में मुक्ति संभव है।
४.
भरत चक्रवर्ती को शीशमहल में ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। मल्लिनाथ (१९वें तीर्थङ्कर) स्त्री थीं।
५.
दिगम्बर परम्परा में स्वीकृत
सवस्त्र मुक्ति नहीं होती है।
नहीं।
१.
२.
३. नहीं।
४. नहीं।
५. नहीं, पुरुष थे।