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पतञ्जलि का अष्टांग योग तथा जैन योग-साधना
स्थान, कायक्लेश
भाव प्राणायम
प्रतिसंलीनता
३. आसन
४. प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
धारणा
ध्यान
ध्यान
८.
समाधि समाधि महाव्रतों के वही पाँच नाम हैं, जो यमों के हैं। परिपालन की दृष्टि से महाव्रत के दो रूप होते हैं- महाव्रत, अणुव्रत । अहिंसा आदि का निरपवाद रूप में सम्पूर्ण परिपालन महाव्रत है, जिसका अनुसरण श्रमणों के लिए अनिवार्य है। जब उन्हीं का पालन कुछ सीमाओं या अपवादों के साथ किया जाता है, तो वे अणु अपेक्षाकृत छोटे व्रत कहे जाते हैं। स्थानांग (५/१) समवायांग (२५) आवश्यक, आवश्यकनिर्युक्ति आदि में इस सम्बन्ध में विवेचन प्राप्त है।
५.
६.
७.
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रकाश में व्रतों का विस्तृत वर्णन किया है। गृहस्थों द्वारा आत्म-विकास हेतु परिपालनीय अणुव्रतों का वहाँ बड़ा मार्मिक विश्लेषण हुआ है। जैसाकि वर्णन प्राप्त है, आचार्य मचन्द्र ने गुर्जरेश्वर कुमारपाल के लिए योगशास्त्र की रचना की थी । कुमारपाल साधना- परायण जीवन के लिए अति उत्सुक था। राज्य-व्यवस्था देखते हुए भी वह अपने को आत्म-साधना में लगाये रख सके, उसकी यह भावना थी। अतएव गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी आत्म-विकास की ओर अग्रसर हुआ जा सके, इस अभिप्रेत से हेमचन्द्र ने गृहस्थ जीवन को विशेषतः दृष्टि में रखा।
आचार्य हेमचन्द्र ऐसा मानते थे कि गृहस्थ जीवन में भी मनुष्य उच्च साधना कर सकता है, ध्यान-सिद्ध प्राप्त कर सकता है। उनके समक्ष उत्तराध्ययन का वह आदर्श था जहाँ 'संति ऐगेहिं भिक्खूहि गारत्था संजमुत्तरा' इन शब्दों में त्यागनिष्ठ, संयमोन्मुख गृहस्थों को किन्हीं - किन्हीं साधुओं से भी उत्कृष्ट बताया है। आचार्य शुभचन्द्र ऐसा नहीं मानते थे । उनका कहना था कि बुद्धिमान और त्याग - सम्पन्न होने पर भी साधक, गृहस्थाश्रम, जो महा दुःखों से भरा है, अत्यन्त निन्दित है, उसमें रहकर प्रमाद पर विजय नहीं पा सकता, चञ्चल मन को वश में नहीं कर सकता । अतः आत्म-शान्ति के लिए महापुरुष गार्हस्थ्य का त्याग ही करते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने तो और भी कठोरता से कहा कि किसी देश-विशेष और समयविशेष में आकाश-कुसुम और गर्दभ-शंग का अस्तित्व मिल.
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भी सकता है परन्तु किसी काल और किसी भी देश में गृहस्थाश्रम में रहते हुए ध्यान-सिद्धि अधिगत करना शक्य नहीं है।
आचार्य शुभचन्द्र ने जो यह कहा है, उसके पीछे उनका जो तात्त्विक मन्तव्य है, वह समीक्षात्मक दृष्टि से विवेच्य है।
सापवाद और निरपवाद व्रत-परम्परा तथा पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित यमों के तारतम्यता रूप पर विशेषतः ऊहापोह किया जाना अपेक्षित है । पतञ्जलि रूप को महाव्रत' शब्द से अभिहित करते हैं, जो विशेषत: जैन परम्परा से तुलनीय है। योगसूत्र के व्यासभाष्य में इसका तलस्पर्शी विवेचन हुआ है।
यमों के पश्चात् नियम आते हैं। नियम साधक के जीवन में उत्तरोत्तर परिष्कार लाने वाले साधन हैं। समवायांगसूत्र के बत्तीसवें समवाय में योगसंग्रह के नाम से बत्तीस नियमों के उल्लेख हैं, जो साधक की व्रत-सम्पदा की वृद्धि करने वाले हैं। आचरित अशुभ कर्मों की आलोचना, कष्ट में धर्मदृढ़ता, स्वावलम्बी, तप, यश की अस्पृहा, अलोभ, तितिक्षा, सरलता, पवित्रता, सम्यक्-दृष्टि, विनय, धैर्य, संवेद, माया - शून्यता आदि का उनमें समावेश है।
पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित नियम तथा समवायांग के योगसंग्रह परस्पर तुलनीय हैं। सब में तो नहीं पर, अनेक बातों में इनमें सामंजस्य है। योगसंग्रह में एक ही बात को विस्तार से अनेक शब्दों में कहा गया है। इसका कारण यह है- जैन आगमों में दो प्रकार के अध्येता बताये गये हैं- संक्षेप-रुचि और विस्तार- रुचि। संक्षेप-रुचि अध्येता बहुत थोड़े में बहुत कुछ समझ लेना चाहते हैं और विस्तार - रुचि अध्येता प्रत्येक बात को विस्तार के साथ सुनना-समझना चाहते हैं। योगसंग्रह के बत्तीस भेद इसी विस्तार - रुचि - सापेक्ष निरूपण - शैली के अन्तर्गत आते हैं।
आसन
प्राचीन जैन परम्परा में आसन की जगह 'स्थान' का प्रयोग हुआ है। ओघनिर्युक्ति6- भाष्य (१५२) में स्थान के तीन प्रकार बतलाये गये हैं- ऊर्ध्व- स्थान, निषीदन-स्थान तथा शयन - स्थान |
स्थान का अर्थ गति की निवृत्ति अर्थात् स्थिर रहना है। आसन का शाब्दिक अर्थ है- बैठना। पर, वे (आसन) खड़े, बैठे, सोते- तीनों अवस्थाओं में किये जाते हैं। कुछ आसन खड़े होकर करने के हैं, कुछ बैठे हुए और कुछ सोये