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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
करता है। इन सबसे प्रमुख जो दोष एकलविहारी साधु में उत्पन्न होता है वह है संयमघाता
इस संयम पर प्रवचनसार में कहा है कि यह तो निश्चित है कि जहाँ परिग्रह है वहाँ ममत्व है तथा जहाँ ममत्व है वहाँ सहगामी असंयम भी है। मुनि आहारक्रिया, इन्द्रियानुसारणी क्रिया, निवास-स्थान, अन्य यतियों अथवा अधर्मचर्चा में रागपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करता है। यत्नपूर्ण प्रवृत्ति ही सम्यक्चारित्र का मूल है, किन्तु यत्नरहित क्रिया मूलगुणों की नाशिनी है। कहा भी है कि- जीव जिये अथवा मरे, किन्तु प्रवृत्तिमान का चित्त यत्नसहित है तो दोष नहीं है और यदि चित्त यत्नरहित है तो सर्वथा दोष ही है। यत्न शब्द का अर्थ आहार, विहार और नीहार आदि क्रियाओं में की गई सावधानी से है। कहा भी है कि- श्रमण आहार तथा विहार में देश, काल, श्रम, क्षमता तथा उपाधि को जानकर ही प्रवर्तन करे, जिससे अत्यल्प कर्मों का बन्ध हो।१२ वस्तुत: जिनवचन ही साधु के चक्षु है, अत: इन आगम चक्षुओं का आश्रय लेकर वे स्वपरहित कार्य सम्पादित करते हैं क्योंकि जिनकी आगमोक्त प्रवृत्ति नहीं है, वे संयम विराधक हैं। जितने कर्मों का नाश अज्ञानी अर्थात् अयोग्य श्रमण कोटि वर्षों में करता है उतना ज्ञानी अर्थात् योग्य साधु उच्छ्वास मात्र में नष्ट करता है।५
आचारवृत्तिकार ने इन पाँच मुख्य दोषों के अतिरिक्त कई अन्य दोषों का समावेश इसमें माना है। अत: उपर्युक्त दोषों को ध्यान में रखते हुए अल्पशक्तिधारी मुनियों को एकलविहार नहीं करना चाहिए। योग्य आचार्य का लक्षण
समूह में विहार करते हुये जो योग्य धर्मानुरागी, मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को संघ में दीक्षा देकर संघ में संग्रह करते हैं तथा उन्हीं साधुओं को शास्त्रज्ञान प्रदान कर उन पर असीम अनुग्रह करते हैं, आगम के सूत्रों को समझने में श्रम करने वाले हैं और जिनकी कीर्ति उदीयमान सूर्य की तरह द्रुतगति से चहुँ दिशाओं में फैल रही है, जो पंचनमस्कार, षडावश्यक, आसिका, निषेधिका - इन तेरह प्रकार की क्रियाओं तथा पञ्चमहाव्रतों, पंचसमितियों, तीन गुप्तियों-इन तेरह प्रकार के चारित्रों में अनुरक्त हैं, आप्तकथित होने के कारण जिनके वचन ग्राह्य तथा आदेय हैं, वे योग्य आचार्य हैं।९६
प्रवचनसार में पंच समिति, पञ्च इन्द्रियविजय, त्रिगुप्तियुक्त, कषायजयी तथा दर्शनज्ञानपूर्ण एकाग्रचित समभावी को साधु कहा है।
___ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो महाशक्तिधारी परीषहजय कर मुनिपदयुक्त हैं, वे वंदनीय हैं।" ज्ञानसहित हेय-उपादेय का ज्ञायक, संयमी परद्रव्य में राग नहीं
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