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________________ अष्टपाहुड एवं प्रवचनसार के परिप्रेक्ष्य में योग्य-अयोग्य साधु विवेचन : ७९ * ही गमन करें, क्योंकि स्वच्छन्द विहार करने पर संयमघात, तप, गुण, श्रुत- विच्छेद, गुरुनिन्दा, तीर्थमलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता, पार्श्वस्थता आदि दोषों को लगाते हैं। इसके अतिरिक्त इन मुनियों के समक्ष कई अन्यान्य विपत्तियाँ उपस्थित होती हैं जैसे काँटे, ठूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गो, सर्प, म्लेच्छ, विष, अजीर्ण, रोगादि का समागम जिसके वशीभूत होकर जिनलिङ्ग छेद का संदेह रहता है।' एतदर्थ अल्पज्ञानी, किन्तु दृढ़ चारित्री साधु को भी एकल विहार का निषेध है। एकल विहार के प्रसङ्ग में मूलाचार प्रदीप में आचार्य सकलकीर्ति स्पष्ट विवेचन करते हुए लिखते हैं अद्याहो पंचमे काले मिथ्यादृगदृष्टपूरिते । हीनसंहनानां च मुनीनां चंचलात्मनाम् ।। द्वित्रितुर्यादिसंख्येन समुदायेन क्षेमकृत् । प्रोक्तो वासो विहारश्च व्युत्सर्गकरणादिकः । यह पंचमकाल मिथ्यादृष्टियों तथा दुष्टों का निवास स्थान है तथा इस काल में साधु हीन संहनन के धारी हैं। अतः इस काल में दो, तीन, चार आदि के समूह में ही विहार करना उचित है तथा कायोत्सर्ग भी समुदाय में ही करना चाहिए। ध्यातव्य है कि यह संकेत मुनि समूह की ओर है न कि चतुर्विध संघ से तात्पर्य है । आचार्य वसुनन्दि ने भी आचारवृत्ति में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए समर्थन किया है किजो द्वादशविध अंतरङ्ग-बहिरङ्ग तप सहित, द्वादशांग ज्ञान सहित (सूत्रज्ञाता), शरीरादि आत्म-बल सहित (सत्त्वयुक्त), भेद-विज्ञान, उत्कृष्ट तीन संहननों में से किसी एक का धारी हो तथा धैर्य सहित हो वह एकल विहार के योग्य है, अन्य नहीं । " आचारवृत्तिकार अधिक गम्भीरता से लेते हुए कहते हैं कि स्वच्छन्द वृत्ति करने वाला मेरा शत्रु भी जिनागम विपरीत आचरण न करे, फिर जो मुनि है उसके विषय में तो कहना भी क्या ।' दैनिक, चर्या में जो सावधानी अवश्यंभावी है, उसके प्रति सजगता का जीवंत परिचय इस वृत्ति में द्रष्टव्य है। वस्तुतः संघसमूह में शिथिलाचार को उत्साह मिलने की संभावना कम ही है, किन्तु स्वच्छन्द विहार में शिथिलाचार का दायरा अधिक विस्तृत हो जाता है। अतएव आचार्यों ने अल्पज्ञ साधु के एकल विहार की घोर निन्दा की है। एक के द्वारा ऐसा करने से अन्य साधु भी उसका अनुसरण करेंगे और भ्रष्ट होंगे, जिससे अनवस्था दोष लगेगा। मिथ्यात्व में प्रवृत्ति, संघस्थ या अन्य साधुओं की अवहेलना रूप प्रवृत्ति, त्यक्त विषयों में पुनरासक्ति और परवंचना करता हुआ वह यथार्थ में आत्मवंचना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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