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________________ पूर्व-मध्य कालीन जैन ग्रंथों में शिक्षा के तत्त्व सभ्रान्त व्यक्तियों को दी जाती थी । अध्ययनीय वाङ्मय के अन्तर्गत व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकारशास्त्र को लिया गया है।" नवयुवकों को उक्त तीनों विषयों के अतिरिक्त ज्योतिष, आयुर्वेद, शस्त्र संचालन एवं गज, अश्व आदि संचालन की शिक्षा दी जाती थी। इसके साथ ही विविध कलाओं जिसमें पुरुषों की बहत्तर तथा स्त्रियों की चौसठ कलाओं का समावेश है, का विवरण मिलता है। बहत्तर कलाओं की एक सूची औपपातिकसूत्र (१०७) में पायी जाती है। राजशेखरसूरि के प्रबन्धकोश से ज्ञात होता है कि किस प्रकार सिद्धसेनसूरि ने राजकुमार भट्ट और राजकुमार आम (कन्नौज) को मोदरपुर के मठ में ७२ कलाओं की शिक्षा दी थी। राजशेखर का समय दसवीं शताब्दी माना जाता है ।" उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला में वाणिज्य एवं व्यापार ललित कला, शिल्प विज्ञान, शिक्षा एवं साहित्य आदि विद्याओं के उल्लेख मिलते हैं। कुवलयमाला में वर्णन आया है जब कुवलयचन्द्र अपना अध्ययन समाप्त कर आचार्य के साथ राजधानी लौटते हैं तो उनके पिता महाराज दृढ़वर्मन आचार्य से पूछते हैं - उवज्झाय, किं अभिगओ कला-कलाओं कुमोरण ण वा।' तब आचार्य ने कहा कि 'स्वयंवरा" कलाओं ने स्वयं कुमार को ग्रहण कर लिया है। पुनः राजा के पूछने पर आचार्य ने ७२ कलाओं का परिचय दिया। जैन ग्रंथों में जहाँ भी शिक्षण प्रसंग आया है वहाँ प्रायः कलाएँ भी गिनाई गयी हैं जिनके नाम व संख्या में भेद दिखायी देता है। जैसे हरिभद्र (७३० ई० - ८३० ई० के अन्तर्गत) ने ८६ कलाओं की गणना की है। : ७३ कुवलयमाला में चौबीसवें एवं पच्चीसवें क्रम पर 'वहां' एवं 'खेड्डे' का उल्लेख है जिसका अर्थ है वस्त्रों पर की गयी विभिन्न प्रकार की कलात्मक जानकारी । आचार्य हरिभद्र ने कलाओं के प्रसंग में ८१ वें संख्या पर 'वत्थखेड्डुं' नामक कला का उल्लेख किया है।" इसी तरह छत्तीसवें पर 'पुफ्फ' एवं चालीसवें पर 'सकडी' का उल्लेख है जिसका अर्थ है - पुष्पों द्वारा गाड़ी को सजाना। यह कला आज भी शादीविवाह के अवसर पर बखूबी देखी जा सकती है। इस ग्रंथ में उल्लेखित अधिकतर कलाओं का अर्थ स्पष्ट है किन्तु कुछ कलाएँ ऐसी हैं जिनका पूर्णतया अर्थ समझ में नहीं आता। इसके लिए तत्कालीन परिवेश को ध्यान में रखकर सोचना आवश्यक है। कुवलयमाला में युद्ध-कला के अन्तर्गत मात्र धनुर्वेद का ही उल्लेख मिलता है, जो उस समय की प्रधान कला थी । सूरि ने वाणिज्य के विविध विषयों का उल्लेख किया है। जिसमें ८४ प्रकार के बाजार,१२ धनार्जन के विविध उपाय इत्यादि विषयों का समावेश है। ये सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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