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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८ भास का प्राकृत प्रयोगजन्य दर्शन ___डॉ० रामा शंकर रजक* संस्कृत की भाँति प्राकृत भी भारतीय ज्ञान-विज्ञान की वाहिका भाषा रही है, जो सम्भवतः वैदिक काल से भारतीय जन-जीवन में अपने विविध दैशिक रूपों में प्रयुक्त होती चली आ रही है। प्राकृत साहित्य में व्यवहार और दर्शन का जितना विवेचन है, उतना ही लौकिक और जीवविज्ञान से सम्बन्धित विषयों का प्रतिपादन भी है। जैन साहित्य विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है, परन्तु इनकी प्रारम्भिक और आधारभूत भाषा प्राकृत है। प्राकृत साहित्य में विभिन्न विधाओं का विश्लेषण हुआ है। अनेक विद्वानों ने संस्कृत तथा प्राकृत दोनों को पृथक् भाषा माना है और प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनिः' (प्राकृतसञ्जीवनी) को अमान्य घोषित किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब संस्कृत ने अपने को उत्कृष्टतम भाषा के पद पर प्रतिष्ठित कर लिया, तब से उसका जन-सम्पर्क प्रायः छूट गया और उस समय से प्राकृत जनसाधारण की भाषा बनी। यही कारण है कि प्राकृत ने विभिन्न भारतीय राज्यों में अपना पृथक्-पृथक् स्वरूप धारण किया और उसका प्रवाह भी बना रहा। कालान्तर में प्राकृत ने अपना साहित्यिक रूप ग्रहण किया और तब से प्राकृत-साहित्य (साहित्यिक प्राकृत) के विभिन्न बिन्दुओं पर शिक्षित जनों की दृष्टि गयी। जिन्हें साहित्यिक प्राकृत कहा गया उनमें महाराष्ट्री (विदर्भ, महाराष्ट्र),शौरसेनी (शूरसेन-मथुरा के आसपास), मागधी (मगध), अर्धमागधी (कौशल) और पैशाची (सिन्ध) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। प्राकृत-व्याकरण के यशस्वी विद्वान् पिशेल के अनुसार स्वच्छन्द प्रयोग के लोप होने से आर्यभाषा के लौकिक मध्यकालीन रूप का विकास हुआ, लेकिन प्राकृत के विकास का आधार प्राचीन और प्राचीनतर आर्यभाषाओं की विशेषताएँ हैं। संस्कृत से प्राकृत के उद्भव सिद्धान्त में सिंहदेवगणि के अनुसार 'प्रकृतेः संस्कृतात् आगतं प्राकृतम् है, अर्थात् संस्कृत ही प्रकृति है और उससे आगत या विकसित भाषा प्राकृत कहलायी। 'प्राकृतसञ्जीवनी' में वर्णित है- 'प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनि:५' अर्थात् सभी संस्कृत प्राकृत का उद्भव स्थान है। इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने भी संस्कृत को ही प्राकृत का उद्गम स्थल माना है, यथा* पी०डी०एफ०, संस्कृत-विभाग, बी०आर०ए०बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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