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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ अनुमोदन किया है कि श्रमिक का वेतन इतना होना चाहिए कि उससे उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण भलीभाँति हो सके। शुक्रनीति में उत्तम, मध्यम और अधम इन तीन प्रकार के वेतनमानों का उल्लेख मिलता है। उत्तम वेतनमान वह है जिसमें श्रमिक के सम्पूर्ण परिवार का भरण-पोषण हो सके। मध्यम वेतनमान वह है जिसमें उसकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। अधम वेतनमान वह है जिसमें मात्र एक ही व्यक्ति का भरण-पोषण हो सके। वेतन निर्धारण भी तीन प्रकार से किया जाता था - प्रथम 'कार्यमाना' अर्थात् कार्य के अनुसार, द्वितीय 'कालमाना' अर्थात् समय के अनुसार और तृतीय 'कार्यकाला' अर्थात् कार्य और समय दोनों के अनुसार दी जाने वाली भृत्ति ।' कुशलता से कार्य करने वाले श्रमिक को अन्य श्रमिकों की अपेक्षा अधिक वेतन का भुगतान किया जाता था । निम्नतम वेतन ६० पण और अधिकतम ४८०० पण वार्षिक दिया जाता था।" एक पण ताँबे के उस सिक्के को कहा जाता था जो ८० कौड़ियों के बराबर होता था। डॉ० कमल जैन ने शुक्रनीति के आधार पर श्रमिकों को तीन भागों में विभाजित किया है-दिवसभयगो, उच्चतभयगो, और कवलभयगो। दिवसभयगो कालानुसार दैनिक वेतन पर काम करते थे और इनके भृत्ति का भुगतान संध्याकाल में कर दिया जाता था जिससे ये आवश्यक खाद्य सामग्री खरीद सकें। उच्चतभयगो श्रमिकों के वेतन का भुगतान एक निश्चित समय तक कार्य करने के पश्चात् ही किया जाता था और ठेके पर कार्य करने वाले उन्हें कवलभयगो श्रमिक कहलाते थे।' यदि हम जैन साहित्य पिण्डनियुक्ति को देखें तो वहाँ भी पारिश्रमिक को आधार बनाकर श्रमिक को तीन भागों में विभाजित किया गया है। " भुगतान के तीन रूप इस प्रकार हैं- नकद, मात्र भोजन तथा नगद और भोजन । उदाहरणार्थ- राजगिरि के नन्दमणिकार ने अपनी पुष्करिणी पर लोकहित हेतु चिकित्सालय, अनाथालय और भोजनालय बनवाये जिसमें नियुक्त कर्मचारियों को नकद भृत्ति और भोजन दिया जाता था । सकडालपुत्र कुम्हार ने अपनी ५०० बर्तन की दुकानों पर भोजन और वेतनमान पर कर्मचारियों की नियुक्ति किया था । " इसी प्रकार हलधारक कृषक श्रमिकों को उनके कुशलता के अनुसार भोजन प्रदान करता था। १२ वैदिक साहित्य में उल्लेख है कि १० गायों का पालन करने वाले ग्वाल को एक गाय का दूध भृत्ति के रूप में दिया जाता था । १३ ४८ जैन साहित्य में उच्च अधिकारियों द्वारा श्रमिकों को कभी-कभी पर्याप्त वेतन भुगतान नही करने के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। 'व्यवहारभाष्य' में वर्णन मिलता है कि एक अमात्य भवन निर्माण करवा रहा था। धन के लोभ से प्रेरित हो वह श्रमिकों को कम वेतन देता था व अपमानित करता था, अनुचित और कठोर काम करवाता था, उन्हें विश्राम हेतु समय नहीं देता था, उन्हें पर्याप्त आहार नहीं देता था, क्षुब्ध हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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