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________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ वृषभदेव के ज्येष्ठपुत्र आदिराजा भरत भी 'मनु' हुए। इसी भाव को एक अन्य स्थान पर महापुराणकार ने वृषभो भरतेशश्च तीर्थ चक्रभृतौ मनुः' (३/२३२) कहा है। इसका तात्पर्य है कि वृषभदेव (ऋषभ), मनु एवं तीर्थंकर थे और भरत चक्रवर्ती भी 'मनु' संज्ञा से अभिहित होते थे। 'गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण (७/४९) में भरत को सोलहवाँ मनु लिखा है। भरत को प्रजा के भरण-पोषण का कर्तव्य निर्वाह मन से किये जाने के कारण सोलहवां मनु कहा गया है और इस प्रकार उनकी 'मनु' संज्ञा सार्थक है। अत: इसमें कोई संशय नहीं है। अपने लोकहित-कार्यों से भरत५ का यश विश्व में मनु, चक्रवर्तियों में प्रथम, षट्खंड भरत क्षेत्र (भारतवर्ष) के अधिपति, राजराज, अधिराट्ट और सम्राट के रूप में उद्घोषित हो गया था। भरत के उदात्त चरित्र ने लोगों के हृदयों में अलौकिक भावानाओं को जन्म दिया था और उनके मन में यह धारणा जम गई थी की अति शक्तिसम्पन्न भरत के चरित्र को सुनने या सुनाने मात्र से कामनाएँ स्वतः पूर्ण हो जाती हैं। ऐसी आस्था के परिणामस्वरूप ही आगे चलकर पूज्य भाव से उनकी मूर्तियों का निर्माण किया गया। देश में कई स्थानों पर उनकी अति सुन्दर मूर्तियाँ मिलती हैं, जिनमें देवगढ़स्थ ध्यानमग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्णित उनकी एक प्राचीन प्रतिमा अपनी भव्यता के कारण उल्लेखनीय है। अन्त में भागवतपुराणकार ने भरत के यश का वर्णन करते हुए एक स्थान पर लिखा है - 'हे राजन्! भगवद् भक्ति से युक्त, निर्मल गुण, कर्मशील राजर्षि भरत का चरित्र कल्याणप्रद आयु का संवर्धक, धनाभिवर्द्धक, यशःप्रदायी तथा स्वर्ग, अपवर्ग का कारणभूत है और भी 'उन्होंने जिस तरह शासन किया, कोई अन्य नहीं कर सकता। उन उत्तम श्लोक भरत ने दुस्त्यज स्त्री-पुत्र, मित्र और राज्य की लालसाओं को मलवत त्याग दिया।' वस्तुतः आदिजिन ऋषभपुत्र प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत की शुभ्रा एवं अनश्वरी कीर्ति, जो पृथ्वी और स्वर्ग को व्याप्त करने वाली है, चिरस्थायी है, शाश्वत है, नित्य है। संदर्भ : १. इनकी माता के रूप में 'जयन्ती' का नामोल्लेख भी मिलता है। इन्द्र ने _ 'जयन्ती' को ऋषभदेव को दिया था। २. वायुपुराण ३१/३७-३८ (आग्नीधं ज्येष्ठ दायादं कन्या पुत्रं महाबलम्; प्रिय व्रतोऽभ्यषिज्यतं जम्बू द्वीपेश्वरं नृपम्।) तस्य पुत्रा बभूवुर्हिप्रजापति समौजसः; ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य...)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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