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________________ धुतंगनिद्देस में प्रयुक्त अर्थघटन के उपकरण : २५ विसुद्धिमग्ग में पंसुकूल वस्त्र के प्रकारों का विश्लेषण किया गया है। वस्त्रों के प्राप्तिस्थान के अनुकूल उनका नामकरण हुआ है, यथा- 'सोसानिक', अर्थात् श्मशान में पड़ा वस्त्र, 'पापणिक' अर्थात् पथ में पड़ा वस्त्र, 'वाताहट' अर्थात् हवा द्वारा उड़कर गिरा वस्त्र, 'सामुद्दिय' अर्थात् समुद्र की लहरों द्वारा किनारे लगाया गया वस्त्र इत्यादि। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि पंथिक, वाताहट एवं श्मशानिक वस्त्रों को तभी उठाना चाहिए जब यह सुनिश्चित हो जाए कि इन वस्त्रों का स्वामी वहाँ पर नहीं है और इन वस्त्रों में उसकी रुचि नहीं है। 'पंसुकूलिकांग' का उपरोक्त विश्लेषण उसके सम्बन्ध में समस्त दुरूहता का परिहार कर उसके अर्थ को स्पष्ट करता है। (ग) समादान - इसका शाब्दिक अर्थ है- ग्रहण करना। धुतंग ग्रहण करने की चेतना समादान है। इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जो ग्रहण करता है वह पुद्गल है, जिसे ग्रहण करता है वह चित्त-चैतसिक धर्म है और जो ग्रहण करने की चेतना है वह धुतंग है। पंसुकूलिकांग ग्रहण करने के लिए दो प्रकार के कथन का प्रयोग आया है- (क) मैं गृहपति प्रदत्त चीवर का परित्याग करता हूँ, या (ख) मैं पंसुकूलिक वस्त्र धारण करता हूँ। इनमें एक कथन निषेधात्मक है तो दूसरा विधेयात्मक। मुख्य रूप से दोनों का भावार्थ एक है। समान रूप से प्राप्त वस्त्रों का त्याग चाहे वे कृत हो या प्रदत्त। समादान नामक अर्थघटन का उपकरण भिक्षु के उस कथन या संकल्प को प्रकाशित करता है जिसमें प्रदत्त वस्त्रों का परित्याग एवं पंसुकूलिक वस्त्र धारण करने की चेतना निहित है। यह चेतना तब तक उनमें बनी रहती है जब तक कि वह पंसुकूल वस्त्र धारण किये है। (घ) विधान - विधान का तात्पर्य यहाँ न तो पंसुकूल धारण करने की विधि से है और न ही इस व्रत के पालन के नियम से है। यह अर्थघटन का वह उपकरण है जो यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार के वस्त्र पंसुकूल नहीं हैं। इसके अनुसार तीन प्रकार के वस्त्र पंसुकूलिक नहीं हैं- (क) चारिका के क्रम में भिक्षाटन में प्राप्त वस्त्र या संघ को प्रदत्त वस्त्र। (ख) वर्षावास के अन्त में भिक्षुओं द्वारा गृहस्थों से प्राप्त वस्त्र जो पांसुकूलिक को दिया जाता है, वह पंसुकूल नहीं है, और (ग) दाता द्वारा भिक्षु के चरणों पर रखा गया वस्त्र भी पंसुकूल नहीं है, यद्यपि यह एक ओर से शुद्ध होता है, लेकिन इस वस्त्र को वह भिक्षु किसी पांसुकूलिक को प्रदान कर देता है तो वह दोनों ओर से शुद्ध हो जाता है। (ङ) प्रभेद-भेद- यह अर्थघटन का वह उपकरण है जो धुतंग धारण करने वाले भिक्षुओं को गुणात्मक दृष्टि से कोटिबद्ध करता है और उसके अर्थ को प्रकाशित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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