SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देहात्मवाद : १३ व्यभिचार आदि अनैतिक कर्म होंगे। साथ ही समस्त शारीरिक कर्मों की शुभताअशुभता के लिए आत्मा को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। कायकृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना चाहिए। यह न्यायसंगत नहीं होगा कि इस जन्म के शरीर द्वारा किये गये कर्मों का फल दूसरे जन्म का शरीर भोगे। ऐसी स्थिति में अकृतागम का दोष होगा। यदि हम आत्मा और शरीर दोनों को एक ही मानते हैं तो शरीर के विनाश के साथ आत्मा का भी विनाश हो जायेगा और शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल अभोग्य रह जायेगा। इस तरह कृतप्रणाश के दोष से वंचित नहीं रहा जा सकता। गीता की दृष्टि से अगर इन समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करें तो वहाँ शरीर नष्ट होता है आत्मा नष्ट नहीं होती है। जैसे व्यक्ति वस्त्रों को जीर्ण होने पर बदल देता है वैसे यह आत्मा भी जीर्ण शरीरों को बदल देती है। साथ ही शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ मानते हुए यह भी कहा गया है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ या शरीर और आत्मा के संयोग से उत्पन्न हुआ है।१२। जैन दृष्टिकोण से विचार करते हैं तो वहाँ आत्मा और शरीर को भिन्न तथा अभिन्न दोनों माना गया है। राजप्रश्नीयसूत्र में देहात्मवाद के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष को राजा पएसी और श्रमण केशीकुमार के बीच संवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है जो निम्न रूप है राजा पएसी श्रमण केशीकुमार के सामने प्रश्न उपस्थित करते हैं कि हे श्रमण! . मेरे दादा अत्यन्त अधार्मिक थे। आपके कथनानुसार वे अवश्य ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह को इष्ट, कान्त यानी अभिलषित, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम (अतीव प्रिय), धैर्य और विश्वासपात्र था, अतः मेरे पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र! मैं तुम्हारा पितामह इसी श्वेताम्बिका नगरी में अधार्मिक कृत्य करता था यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालन व रक्षण नहीं करता था। इस कारण बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूँ। किन्तु हे पौत्र! तुम अधार्मिक मत होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन-रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जनसंचय ही करना। देहात्मवादियों के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने कहा- हे राजन्! जिस प्रकार तुम अपने अपराधी को इसलिए नहीं छोड़ देते हो कि वह जाकर अपने पुत्रमित्र और ज्ञातजनों को यह बताये कि मैं पापी हूँ और अपने पाप के कारण दण्ड भोग रहा हूँ, तुम ऐसा मत करना। इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें प्रतिबोध देने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy