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________________ १२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ पर शरीर तो रहता है लेकिन उसमें प्राण आदि की चेष्टायें नहीं होती हैं। जबकि रूप आदि जो शरीर के धर्म हैं वे रहते हैं। स्मृति आदि जो शरीर के धर्म नहीं हैं मरने के उपरान्त नहीं रहते। इस प्रकार शंकराचार्य आत्मा और देह की भिन्नता को मानते हुए कहते हैं कि यदि चेतनता शरीर का गुण होती तो शरीर में सदा पाई जाती इससे यह प्रमाणित होता है कि चेतनता शरीर का धर्म नहीं है। यदि कोई यह कहता है कि चेतनता या ज्ञान चार भूतों के मिलने से उत्पन्न हो जाता है, जैसे- शराब में नशा, तो प्रश्न होता है कि भूतादि क्या हैं? विषय या विषयी। जड़ कभी भी विषयी नहीं हो सकता। आग अपने को नहीं जलाया करती और न ही नट अपने ही कंधे पर चढ़ सकता है। रूप आदि स्वयं के रूप को या दूसरे के रूप को नहीं देख सकता, अत: देखने वाला और जानने वाला कोई और ही है वह है आत्मा। जो यह कहते हैं कि स्मृति शरीर का धर्म है क्योंकि जब तक शरीर है तब तक स्मृति रहती है और जब शरीर समाप्त हो जाता है तो स्मृति भी समाप्त हो जाती है। यहाँ आचार्य शंकर कहते हैं कि ज्ञान में स्मृति और विस्मृति का विशेष स्थान होता है। लेकिन यह स्मृति और विस्मृति किसको होती है? क्या यह स्मृति आँख के पास रहती है या वह किसी को दे देती है। यदि यह मानते हैं कि वह आँख के पास ही रहती है तो दूसरे ज्ञान को प्राप्त करना असंभव हो जायेगा। क्योंकि वह ज्ञान सदैव आँख के सामने बना रहेगा। लेकिन देखा यह जाता है कि जब कोई वस्तु आँख के सामने से हट जाती है तो उसका ज्ञान भी धुंधला हो जाता है। मन्दिर में रहनेवाले पुजारी को मन्दिर का सौन्दर्य उतना स्पष्ट नहीं होता जितना पहली बार देखने वाले व्यक्ति को। इसका मतलब है कि हमारी इन्द्रियाँ प्राप्त ज्ञान को कहीं जमा करती हैं या प्रेषित कर देती है और वह स्थान हैआत्मा। यदि स्मृति आँख का धर्म होती तो हमारी बायीं आँख द्वारा देखी गई वस्तु दायीं आँख किसी भी कीमत पर नहीं पहचान सकती। जहाँ तक शरीर के रहने पर स्मृति के रहने और शरीर के न रहने पर उसकी अनुपस्थिति का प्रश्न है तो यह उसी प्रकार है जिस प्रकार दीपक के रहने पर वस्तु दिखाई देती है और न रहने पर वस्तु दिखाई नहीं देती। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वस्तु देखने वाला दीपक है बल्कि वह तो एक उपकरण मात्र है। ठीक इसी प्रकार शरीर के रहने पर स्मृति रहती है और शरीर के न रहने पर स्मृति नहीं रहती। शरीर तो एक उपकरण मात्र है। वस्तुत: स्मृति तो आत्मा को होती है। ___अब प्रश्न उठता है कि हम आत्मा और शरीर को एक माने या अलग-अलग। यदि हम आत्मा और शरीर को एक-दूसरे से अलग मानते हैं तो शरीर-धर्म जैसे भूख, प्यास, मैथुन, निद्रा आदि का सम्बन्ध नैतिकता से नहीं रहेगा और न ही हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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