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________________ जैन दर्शन में निक्षेपवाद : एक विश्लेषण : ८१ कहलाते हैं। विद्यासागर का अर्थ विद्या का सागर और लक्ष्मीपति का अर्थ धन का मालिक है। विद्या का सागर होने से ही विद्यासागर कहना नाम निक्षेप नहीं है। यदि नाम के साथ-साथ इस प्रकार का गुण भी विवक्षित हो तो वहाँ नाम निक्षेप की अपेक्षा भाव निक्षेप सन्दर्भित होगा। यदि नाम निक्षेप नहीं होता तो हम विद्यासागार, लक्ष्मीपति आदि सुनकर अगाध विद्वता सम्पन्न एवं धनाढ्य व्यक्ति की ही कल्पना करते, पर सर्वत्र ऐसा नहीं होता। इसलिए इन शब्दों का वाच्य जब अर्थानुकूल नहीं होता तब नाम निक्षेप ही विवक्षित समझना चाहिए। नाम निक्षेप में मूल नाम ही विवक्षित होता है पर्यायवाची नहीं। जैसे किसी व्यक्ति का नाम इन्द्र रखा गया हो तो उसे सुरेन्द्र, देवेन्द्र, पुरन्दर, शक्र आदि शब्दों से सम्बोधित नहीं किया जा सकता। २. स्थापना निक्षेप : जो अर्थ तद्प नहीं है उसे तद्प मान लेना स्थापना निक्षेप है। जैन तर्कभाषा में यशोविजय जी ने स्थापना निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा है - 'जो वस्तु मूलभूत अर्थ से रहित हो किन्तु उसी के अभिप्राय से स्थापित (आरोपित) किया जाए वह स्थापना निक्षेप है। मन के द्वारा भेद में अभेद का आरोप होता है। यह अभेद का आरोप स्थापना का मूलभूत तत्त्व है। अभेद का आरोप कहीं समान आकार को लेकर किया जाता है और कहीं पर आकार के समान न होने पर भी किया जाता है। गौ अथवा अश्व के आकार को काष्ठ, पत्थर अथवा पत्र में देखकर कहा जाता है कि यह गौ है,यह अश्व है। देखने वाला काष्ठ, गौ आदि के भेद को जानता है पर आकार के समान होने से चेतन गौ आदि का अचेतन काष्ठ आदि में आरोपण करता है। इसी प्रकार वृक्ष, पर्वत आदि के अचेतन चित्र में चेतन वृक्ष, पर्वत आदि का आरोपण कर व्यवहार चलाया जाता है। इसे दूसरी भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि सेवक नाम का कोई व्यक्ति नहीं है परन्तु किसी मानवाकृति में सेवक को आरोपित कर उसके गुण-दोष का निरूपण करना स्थापना निक्षेप है। ३. द्रव्य निक्षेप : अतीत अवस्था, भविष्यत् अवस्था और अनुपयोग दशाये तीनों विवक्षित क्रिया में परिणत नहीं होते इसलिए इन्हें द्रव्य निक्षेप कहा जाता है। जैन तर्कभाषा में इसे बताते हुए कहा गया है- भूत भाव का अथवा भावी भाव का जो कारण निक्षिप्त किया जाता है वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे जो भूतकाल में इन्द्र पर्याय का अनुभव कर चुका है अथवा जो भावी काल में इन्द्र पर्याय का अनुभव करेगा वह इन्द्र है। किसी समय घडे में घी भरा जाता था, आज वह खाली पड़ा है। तथापि उसे घी का घड़ा कहना या घी भरने के लिए घड़ा मँगवाया गया हो, अभी तक घी नहीं भरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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