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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २००८
जैन दर्शन में निक्षेपवाद : एक विश्लेषण
नवीन कुमार श्रीवास्तव*
मानव अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का प्रयोग करता है। बिना भाषा के वह अपने विचार सम्यक् प्रकार से अभिव्यक्त नहीं कर सकता। मानव और पशु में एक बड़ा अन्तर यही है कि दोनों में अनुभूति होने पर भी पशु भाषा की अस्पष्टता के कारण इसे व्यक्त नहीं कर पाता जबकि मानव अपने विचारों को भाषा के माध्यम से भली-भांति व्यक्त कर सकता है। विश्व का कोई भी व्यवहार बिना भाषा के चल नहीं सकता । परस्पर के व्यवहार को अच्छी तरह से चलाने के लिए भाषा का सहारा और शब्द प्रयोग का माध्यम होना अनिवार्य है। विश्व में हजारों भाषाएं हैं और लाखों शब्द हैं। हर एक भाषा के शब्द अलग-अलग होते हैं। भाषा के परिज्ञान के लिए शब्द - ज्ञान आवश्यक है और शब्द ज्ञान के लिए भाषा ज्ञान जरूरी है। किसी भी भाषा का सही प्रयोग तभी हो सकता है जब हम अपने उन शब्दों का समुचित प्रयोग करना सीखें। जैन दर्शन का निक्षेप सिद्धान्त भाषा - प्रयोग के इसी व्यावहारिक स्वरूप को प्रस्तुत करता है ।
वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द का अर्थ क्या है इसे ठीक रूप से समझ लेना जैन दर्शन की भाषा में 'निक्षेपवाद' है । निक्षेप का लक्षण बताते हुए जैन दार्शनिकों ने कहा है- ' शब्द का अर्थ में और अर्थ का शब्द में आरोपण, अर्थात् अर्थ और शब्द को किसी एक निश्चय या निर्णय में स्थापित करना निक्षेप है । "
निक्षेप का पर्यायवाची न्यास भी है । तत्त्वार्थवार्तिक में 'न्यासो निक्षेपः २ कहकर इसका स्पष्टीकरण किया गया है। जैन तर्कभाषा के अनुसार में 'शब्द और अर्थ की ऐसी रचना निक्षेप कहलाती है जिससे प्रकरण आदि के अनुसार अप्रतिपत्ति आदि का निवारण होकर विनियोग होता है। इसी प्रकार लघीयस्त्रय में कहा गया है कि निक्षेप की सार्थकता यही है कि उससे अप्रस्तुत अर्थ का निषेध और प्रस्तुत अर्थ का निरूपण होता है। "
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शब्द को सुनकर अर्थ का ज्ञान श्रोताओं को एक-सा नहीं होता है। जो श्रोता व्युत्पन्न नहीं होता वह अवसर पर पद के उस अर्थ को नहीं जानता जिसमें वक्ता का * शोध छात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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