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________________ २ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ जाएगी। ये मार्ग-पट्ट उन तीर्थंकरों द्वारा स्थापित हैं जो सभी झंझावातों को सहकर मंजिल पा चुके हैं और प्रत्येक मनुष्य को भटकाव से बचाने के लिए मार्ग-पट्ट पर लिखित रूप में विद्यमान हैं। प्रश्न यह है कि ये मार्ग-पट्ट क्या प्रतिपादित करते हैं? ___ यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि जीवन विविधरूपी प्रवाह है जो प्रकृति में व्याप्त है। जीवन अर्थात् चेतना अर्थात् प्राण और जो इस प्राण को निहित रखता हो वह प्राणी है? प्राणी अपने अस्तित्व के लिए अन्य प्राणियों पर आश्रित है यह बात जैन दर्शन शताब्दियों पूर्व स्थापित कर चुका है। यहाँ आवश्यकता के लिए आश्रित होना और अस्तित्व के लिए आश्रित होने में भेद है। आधुनिक व्यवसायपरक दृष्टि पारस्परिक आश्रितता को तो स्वीकार करती है, किन्तु केवल आवश्यकता के आधार पर (Need based dependence)। जैन दृष्टि में पारस्परिक आश्रितता का आधार अस्तित्वगत है (Pre-existential dependence)। जब आवश्यकता के आधार पर निर्भरता को स्वीकार किया जाता है तो उसमें मूल्य केन्द्रीय नहीं होता, जबकि अस्तित्वगत निर्भरता में मूल्य केन्द्रीय है। यही कारण है कि जैन दर्शन 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' की मान्यता प्रस्तुत करता है। अस्तित्वगत आश्रितता प्राणियों में समता को स्वीकार करती है। जिसका अर्थ यह है कि गुण, क्षमता, शक्ति और आकार में भिन्न होने पर भी विभिन्न प्राणियों में सारभूत समता है और मुधमक्खी जैसे लघु आकारी, कम शक्ति-सामर्थ्य वाले प्राणी तथा सिंह जैसे बृहद् आकारी एवं शक्तिमान प्राणी के अस्तित्व का समान महत्त्व है। ठीक यही बात मनुष्य के अस्तित्व पर भी लागू होती है। सबसे बुद्धिमान, विजयी, विवेकी और शक्तिशाली होने पर भी मनुष्य अपने अस्तित्व के लिये अपने से बहुत ही निम्न, निरीह एवं निकृष्ट प्रतीत होने वाले प्राणियों पर निर्भर है। इनमें हम कीट-पतंगों को सम्मिलित कर सकते हैं। पृथ्वी पर उड़नेवाले अथवा पृथ्वी में पैदा होने वाले विभिन्न जाति-प्रजातियों के कीट-पतंगों को हम व्यर्थ की उत्पत्ति मानते हैं। मच्छर, भौरे, केचुएं, केटरपीलर, टिड्डी, रेशम के कीड़े, चीटियाँ, मकोड़े, छिपकली, अमीबा और ऐसे कितने प्रकार की कीटों के नाम लिये जा सकते हैं जो विभिन्न प्रजातियों में पाये जाते हैं। मनुष्य ने इन कीट पतंगों को व्यर्थ की उत्पत्ति मानकर इन्हें स्वयं के जीवन में बाधक माना और इन्हें खत्म करने के लिये अनेक प्रयोग-अनुसंधान कर डाले। कई रसायनों, मिश्रणों के आधार पर औषधियों का निर्माण किया गया और कीट पतंगों से पृथ्वी को मुक्त करने का अभियान चलाया गया। माना गया कि मनुष्य का घर या उसका शहर केवल उसके लिये होना चाहिए किसी अन्य प्राणी के लिए वह किसी भी हालत में 'घर' न बन जाय इसलिए ज्ञान-विज्ञान की सारी कुशलता खर्च कर दी गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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