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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २००८
कीट-रक्षक सिद्धान्त का नैतिक आधार
प्रो० एस० आर० व्यास
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विश्व की सर्वोत्तम निधि 'जीवन' है जो चारों ओर विविध रूपों में अभिव्यक्त है। इस अभिव्यक्ति से विश्व में रस, ऊर्जा एव आनंद की बहुरंगी छटा अनुभूत होती है। जीवन को अभिव्यक्त करने वाले प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो बुद्धि एवं क्षमता में अन्य अभिव्यक्त जीवन-रूपों में विशिष्ट है। विशिष्ट होने के इसी दम्भ ने मनुष्य को शासक, आक्रान्ता और अधिकार-शोषक बना दिया है जिसका परिणाम है कि स्वयं उसकी अपनी स्थिति विनाश के कगार पर आ पहुँची है।
__ जैन धर्म-दर्शन विनाश के कगार पर खड़े इस मनुष्य को बचाने एवं उसे उसके वास्तविक गन्तव्य की ओर प्रेरित करने का वह आह्वान् है जो सदियों पूर्व किया गया था, किन्तु जिसे मनुष्य ने अपनी स्वार्थपूर्ण दौड़ और विज्ञान की उपलब्धियों की विजय-दुंदुभियों के बीच अनसुना कर दिया। दौड़ जारी रखते हुए और उपलब्धियों को बटोरते हुए जब वह विनाश के कगार के समीप आ गया तब उसे लगा कि यह सब कैसे हो गया है? इतनी सुख-सुविधा और आराम देने वाला यह रास्ता अन्त में इतना कसैला, विषैला और कंटीला कैसे हो गया? अणुबम और नाभिकीय शस्त्रों को हाथ में लेकर प्रकृति को ललकारने वाला मनुष्य आज पानी, छाया और हवा के लिए तरस रहा है? हजारों सांसों को खत्म करके, हजारों जीवनों को मौत में बदलने के बाद भी वह खुद घुट-घुटकर सांसे ले रहा है, फिर उस सबका क्या मतलब है जिसे बनाने-संवारने में उसने शताब्दियां लगा दी? करोड़ों रुपये खर्च करके बनाए गये सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों के बीच यदि उसके कान पक्षियों की चहचहाहट के लिए, आँखे हरियाली के लिए और नाक ताजी बयार को हृदय में भरने के लिए तरस जाए तो क्या वे करोड़ों रुपये कौड़ियों के बराबर नहीं हो गये? ऐसा क्यों हो रहा है? चन्द्रमा
और मंगल ग्रह की दूरियां नापनेवाला मनुष्य अपनी ही कदमों की गति नापना, दिशा निर्धारित करना क्यों भूल गया?
जैन धर्म-दर्शन तारों, नक्षत्रों और ग्रहों पर उड़ने वाले मनुष्य के कदमों को सही पगडंडी पर चलने का संकेत देता हुआ ऐसा मार्ग-पट्ट है जो पथिक को यह विश्वास दिलाता है कि यदि वह उसके अनुसार चलता रहा तो अवश्य ही उसे मंजिल मिल * पूर्व सदस्य सचिव, अखिल भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली
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