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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २००८ अपभ्रंश जैन कवियों का रसराज - 'शांत रस' - डॉ० शंभु नाथ सिंह* __ आदिकाल अपभ्रंश काव्य के विकास में जैन कवियों का असाधारण योगदान रहा है। सभी कालों में काव्य-रचना के प्रधान विषय के रूप में मानव ही केन्द्रित रहा है। यही कारण है कि मानव जीवन के सभी पक्षों पर जैन कवियों ने अपनी लेखनी चलायी है। लेकिन उनकी लेखनी के नेपथ्य में धार्मिक विचारधारा ही मुख्य रही है। जहाँ तक अपभ्रंश भाषा के समय का प्रश्न है तो विद्वज्जन उसे ईसा की ५वीं शती से १०वीं शती तक मानते हैं लेकिन जब हम साहित्य की पड़ताल करते हैं तो हमें ८वीं शती से अपभ्रंश साहित्य मिलने प्रारम्भ होते हैं। ऐसे ९वीं से १३वीं शती तक अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध काल माना जा सकता है, क्योंकि पुष्पदन्त, धवल, नयनन्दी, धाहिल आदि अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक, नाटक, चम्पू आदि काव्यों की रचना जैन कवियों ने प्रचुर मात्रा में की है। अपभ्रंश जैन कवियों की विशेषता यह है कि उन्होंने परम्परा से चली आ रही मान्यता के विपरीत शान्त रस को प्रधानता दी है। परम्परा के अनुसार महाकाव्यों में शृंगार, वीर और शान्त रस में से किसी एक रस की प्रधानता होती है तथा अन्य रस गौण होते हैं, किन्तु अपभ्रंश जैन कवियों ने चाहे वह प्रेमकथा हो या तीर्थंकर चरित्र सभी में वीर रस, श्रृंगार रस आदि का प्रदर्शन करते हुए अन्त में संसार की असारता को दिखाते हुए उसका पर्यवसान शांत रस में किया है। इस प्रकार शृंगार जिसे 'रसराज' की संज्ञा से विभूषित किया जाता रहा है, के स्थान पर अपभ्रंश जैन कवियों ने 'शांत रस' को रसराज के रूप में प्रस्तुत किया। सामान्य तौर पर शृंगार और शांत दो विरोधी रस हैं। शृंगार मनुष्य को कामासक्त बनाता है, वहीं शांत मनुष्य के वीर्य शक्ति का शमन करता है। अपभ्रंश जैन कवियों द्वारा रचे गये काव्यों में श्रृंगार और शांत रस गले मिलते नजर आते हैं। दोनों रसों का यह मिलन जैन काव्यों में देखा जा सकता है। श्रृंगार के रसराजत्व को धूमिल कर शांत रस को रसराजत्व प्रदान करना, अपभ्रंश कवियों की मौलिक विशेषता कही जा सकती है। वैसे जैन कवियों के काव्य में सभी रसों का वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु उसका अन्त शम या निर्वेद में ही होता है। प्रस्तुत आलेख में हमने कुछ विशिष्ट ग्रंथों * क्वार्टर नं०- डी०टी० २२६९, पो०-धुर्वा, रांची-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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