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________________ एसोवि परिसमप्यइ वसुमइ-सुरलोय-पावणो नाम । सुरसुंदिर-नामाए कहाए छट्ठो परिच्छेओ ।। २५०।। संस्कृत छाया : साधु धनेश्वरविरचितसुबोधगाथासमूहरम्यायाः । रागाग्नि-दोष-विषधर-प्रशमन-जलमन्त्रभूतायाः ॥२४९।। एषोऽपि परिसमाप्यते वसुमती सुरलोकप्रापणो नामा। सुरसुंदरि नाम्न्याः कथायाः षष्ठः परिच्छेदः ।।२५०।। गुजराती अर्थ :- धनेश्वर मुनि द्वारा बनावेली, सारी रीते बोध-पामी शकाय तेवी गाथाओना समूहथी मनोहर, राग रुपी आग तथा द्वेष रूपी विषधर ने शान्त करवा माटे अनुक्रमे जल अने मन्त्र समान सुरसुन्दरी नामनी कथानो वसुमतीने देवलोकनी प्राप्ति रूप आ छट्ठो परिच्छेद पण सारी रीते समाप्त थयो। हिन्दी अनुवाद :- अच्छी तरह से बोध हो सके वैसी गाथा के समूह से रम्य, साधु धनेश्वर द्वारा रचित एवं राग रूपी आग तथा द्वेष रूपी विषधर को शान्त करने के लिए- अनुक्रम से जल और मन्त्र समान - सुरसुन्दरी नाम की कथा का वसुमति के देवलोक की प्राप्ति रूप यह छठवाँ परिच्छेद भी समाप्त हुआ। ॥षष्ठः परिच्छेद समाप्तः ।। छ ।।१५००।। 398 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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