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इसने धनपति का रूप ग्रहण कर लिया तथा वास्तविक स्वरूप को न जानने वाली वसुमति का सेवन किया तथा उसके पति धनपति का अपहरण कर विनीता नगरी में छोड़ दिया। उधर धनपति सोचता है कि इस नगरी में मैं कैसे आ गया। ऐसा सोचते हुए वह नगर के बाहर उद्यान में आया जहाँ ऋषभदेव प्रभु की वंश परम्परा के राजर्षि दण्डवीर्य केवली भगवंत उपस्थित थे। वह तीन बार उनकी प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम कर उचित स्थान पर बैठा और अवसर मिलने पर उसने पछा कि उसका किसने अपहरण किया और क्यों? तथा यह कौन-सी नगरी है। तब केवली भगवंत ने उसे बताया कि तेरे कर्मों के कारण ही ऐसा हुआ है। अतः तू परमात्मा की आज्ञा से कर्मनाश का उद्यम कर। ऐसा सुनकर वह केवली भगवंत से दीक्षित हो तीस लाख पूर्व तक उग्र तपयुक्त चारित्र का पालन कर चन्द्रार्जुन नाम के विमान में चन्द्रार्जुन नाम का देव बना। बाद में अवधिज्ञान से सम्पूर्ण चरित्र को जानकर मैं यहाँ इस नगरी में आया हूँ। वसुमति के साथ इसने जो कुकृत्य किया इससे हमने इसकी बाकी विद्याएं हर लीं। इस कारण यह अपने मूल स्वरूप में आ गया और विधाएं हर ली जाने के कारण आकाश में नहीं उड़ पाया। अत: हे सखी धारिणी! इस प्रकार देव के कहने पर श्रेष्ठी समुद्रदत्त, उनकी पत्नी सुदर्शना भी उस देव को पकड़कर पुत्र वियोग के दुःख से रोने लगीं। नगर की स्त्रियाँ पुरुष सभी सुमंगल को कोसने लगे। विलाप करती हुई वसुमति से उसने कहा - हे भद्रे! अभी तुम क्या चाहती हो। तब लज्जामुख वाली वसुमति ने कहा हे स्वामिन्! आप जैसा आदेश करें।
यहां षष्ठ अध्याय समाप्त हो जाता है।
iv
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