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बाहर जा सके। ऐसा करने पर चित्रगति कनकमाला के सभी वस्त्राभूषण पहनकर शिविका में आरूढ़ हो गया और मैं मन्दिर में कामदेव को साक्षी मानकर उस बाला से गान्धर्व विवाह कर आलिगंन बद्ध होकर सो गया। उठने पर नभोवाहन के कारण हो सकने वाली जुदाई को सोचकर वह विलाप करने लगी। मैंने उसे समझाया कि जो भी होना है होने दो। अभी हम रत्नसंचय नगरी चलते हैं। ऐसा कहकर हम दोनों ने गगन मार्ग के द्वारा रत्नसंचय नगरी के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में कनकमाला को प्यास लगने पर हम दोनों निकुंजवन में गए जहाँ शीतल जलवाला एक झरना था। वहाँ हम विश्राम कर ही रहे थे कि कदली वृक्ष के पीछे से चित्रगति एक युवती के संग निकला। फिर मैंने चित्रगति से शिविका में बैठने के बाद का दृष्टान्त और यह सुन्दर युवती तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुई, इसका कारण जानना चाहा। चित्रगति ने कहा, हे! चित्रवेग कनकमाला का रूप धारण कर मैं नभोवाहन के पास पहुँचा और उससे मेरा विवाह सम्पन्न हुआ। तभी एक युवती आकर मुझे मुद्रारत्न सहित अपनी हथेली दिखाई। यह मुद्रिका मेरी थी जो उस समय हाथी के भय से मुक्त की हुई कन्या से मैने ग्रहण की थी। तब मैंने उसके द्वारा पूर्व में समर्पित मुद्रायुक्त हाथ उस बाला को दिखाया। वह पहचान गयी और बहाने से मुझे अशोक वाटिका में ले गयी और हमने उसे सारा वृत्तान्त कह दिया। फिर मैंने उससे उसका परिचय पूछते हुए कहा कि तूने मुझे स्त्री रूप धारण करने पर भी कैसे पहचान लिया।
उसने बताया कि सरनन्दन नामक एक नगर है। उस नगर में विद्याधरों का प्रभंजन नामक राजा राज्य करता है। उसका अत्यन्त कुशल मेघनाद नाम का एक मन्त्री है। श्रेष्ठ रूप वाली उसकी पत्नी का नाम इन्दुमती है। इसी पत्नी से उसे अशनिवेग नामक रूपवान पुत्र उत्पन्न हुआ। वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। इधर दक्षिण श्रेणि में स्थित कुंजरावर्तनगर में चन्द्रगति नाम का एक श्रेष्ठ विद्याधर है। उसकी पत्नी मदनरेखा से उसे कालक्रम में अमितगति नाम का पुत्र तथा चम्पकमाला नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। इस चम्पकमाला का विवाह सुरनन्दन नगर के मन्त्रीपुत्र अशनिवेग के साथ आदरपूर्वक हुआ। कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत होने पर मेघनाद ने अपने पुत्र आशनिवेग को मन्त्री पद देकर प्रभंजन राजा के साथ सद्गुरु के चरण में दीक्षा ले ली। पुन: चम्पकमाला के वज्रगति, वायुगति, चन्द, चन्दन और सुखीश नामक पांच पुत्रों के पश्चात् मैं प्रियंगुमंजरी पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। युवा होने पर मुझसे विवाह करने बहुत सारे विद्याधर आने लगे। किन्तु स्वभाव से पुरुषद्वेषिणी मैंने सभी को लौटा दिया। इससे मेरे पिता एवं माता शोकग्रस्त रहने लगे। माता-पिता के शोक ग्रस्त होने के करण मैं भी उदास रहने लगी। एक दिन सूर्यप्रभ की पुत्री मेरी प्रिय सखी धारिणी मेरे पास आई उसने मुझसे मेरे उदासी का कारण पूछा। मैंने उसे बताया कि
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