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________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ लेकर १८ तक तेरह गाथाओं में आर्त्तध्यान सम्बन्धी विवेचन है। ज्ञातव्य है कि जैनधर्म में आर्तध्यान को ध्यान का एक रूप स्वीकार करके भी त्याज्य माना गया है। आगे गाथा क्रमांक १९ से २२ तक चार गाथाओं में रौद्रध्यान के चार प्रकारों- १. हिंसानुबन्धी २. मृषानुबन्धी ३. स्तेयानुबन्धी और ४. संरक्षणानुबन्धी के स्वरूपों का विवेचन हुआ है। इसके पश्चात् गाथा क्रमांक २३-२४ में यह बताया गया है कि रौद्रध्यान स्वयं करना, अन्य से कराना अथवा करते हुए का अनुमोदन करना- ये तीनों ही राग-द्वेष और मोह युक्त होने से नरक गति के हेतु हैं। इसके पश्चात् २५वीं गाथा में आर्तध्यान में कौन-सी लेश्या होती है, इसकी चर्चा की गई है। तदनन्तर रौद्रध्यान के लक्षणों की चर्चा की गई है। रौद्रध्यान को ध्यान के अन्तर्गत वर्गीकृत करके भी उसे हेय और नरकगति का हेतु बताया गया है। आर्त और रौद्रध्यान हेय या त्याज्य होने से प्रस्तुत कृति में इन दोनों का विवेचन अत्यन्त संक्षेप में मात्र २१ गाथाओं (७-२७) में हुआ है। जबकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान का विवेचन लगभग ७८ गाथाओं में किया गया है। धर्मध्यान की चर्चा के प्रसंग में प्रस्तुत ग्रन्थ में धर्मध्यान का विवेचन निम्न बारह द्वारों अर्थात् विभागों में किया गया है- १. भावनाद्वार २. देश अर्थात् स्थल द्वार ३. काल अर्थात् ध्यान का समय ४. ध्यान के आसन, ५. धर्मध्यान के आलम्बन (स्वाध्याय) ६. ध्यान का क्रम ७. ध्यान का विषय ८. ध्याता की योग्यता जैसे अप्रमत्तता आदि ९. अनुप्रेक्षा अर्थात् ध्यान में चिन्तनीय विषय १०. धर्मध्यान की लेश्या (मनोवृत्ति) ११. धर्मध्यान के लक्षण. १२. धर्मध्यान फल या परिणाम। इसी क्रम में धर्मध्यान के प्रकारों का भी उल्लेख हुआ है- १. आज्ञाविचय अर्थात् वीतराग परमात्मा ने क्या-क्या करने या नहीं करने का आदेश दिया है, उसका चिन्तन करना २. अपायविचय अर्थात् राग, द्वेष, मोह कषाय आदि की दोषरूपता का चिन्तन करना ३. विपाकविचय अर्थात् कर्मविपाक (फल) पर विचार करना ४. संस्थानविचय अर्थात् लोक के स्वरूप पर विचार करना। साथ ही यह भी बताया गया है कि अप्रमत्तसंयत अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर ११वें उपशांतमोहनीय या १२वें क्षीणमोहनीय गुणस्थानवर्ती मुनि धर्मध्यान के अधिकारी या ध्याता होते हैं। इसी प्रकार धर्मध्यान के ध्याता में तेजो, पद्य और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत कृति ध्यानशतक या ध्यानाध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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