SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानशतक : एक परिचय : ४५ विक्रम की आठवीं शताब्दी और तदनुसार ईस्वी सन् सातवीं शती के उत्तरार्द्ध में हुए हरिभद्र स्वयं इसे न केवल उद्धृत कर रहे हैं, अपितु आवश्यकवृत्ति के अन्तर्गत उस पर टीका भी लिख रहे हैं। अतः झाणज्झयण अपरनाम ध्यानशतक का रचनाकाल ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और ईस्वी सन् की सातवीं शती के प्रथम दशक के पूर्व हो सकता है। फिर भी मेरी दृष्टि में इसे जिनभद्र क्षमाश्रमण की रचना होने के कारण ईस्वी सन् की छठी शती के अन्तिम चरण की रचना मानना अधिक उपयुक्त है। ग्रन्थ की विषय-वस्तु और उसका वैशिष्टय प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम मंगलगाथा में ग्रन्थ रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करने के पश्चात् दूसरी गाथा में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अध्यवसायों की एकाग्रता 'ध्यान' है और उनकी चंचलता 'चित्त' है। यह चित्त भी तीन प्रकार का है- १. भावना रूप २. अनुप्रेक्षा रूप और ३. चिन्ता रूप। भावना की अपेक्षा अनुप्रेक्षा में और अनुप्रेक्षा की अपेक्षा चिन्ता में चित्त की चंचलता वृद्धिगत होती जाती है, जबकि ध्यान में चित्त एकाग्र रहता है। सामान्य व्यक्तियों के लिए अन्तर्मुहूर्त तक चित्तवृत्ति का एकाग्र होना ध्यान है, किन्तु तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन जब चौदहवें गुणस्थान में योग निरोध करते हैं अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध करते हैं, तब उसे ध्यान कहते हैं। इसके पश्चात् ध्यान के चार प्रकारों अर्थात् आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान का उल्लेख करते हुए प्रथम दो को भवभ्रमण का कारण और अन्तिम दो को मुक्ति का साधन बताया गया है। चार ध्यानों को चार गतियों से जोडते हुए जैन परम्परा में यह कहा गया है कि आर्तध्यान तिर्यंचगति का, रौद्रध्यान नारक गति का, धर्मध्यान मनुष्य या देवगति का तथा शुक्लध्यान मोक्षगति का हेतु है। इसके पश्चात् प्रस्तुत ग्रन्थ में आर्तध्यान के चार प्रकारों- १. अनिष्ट या अमनोज्ञ का संयोग २. रोगादि की वेदना ३. इष्ट का वियोग और ४. निदान अर्थात भविष्य सम्बन्धी आकांक्षा का उल्लेख हआ है। तत्पश्चात यह बताया गया है कि रोगादि की वेदना में और रोग-मुक्ति के प्रयासों में भी वास्तविक मुनि को आर्त्तध्यान नहीं होता है, क्योंकि आलम्बन प्रशस्त होता है। इसी प्रकार मोक्ष की इच्छा भी निदान रूप नहीं है, क्योंकि उसमें राग-द्वेष और मोह नहीं है। इसके पश्चात् आर्तध्यान के लक्षण-आक्रन्द, दैन्य आदि की चर्चा है। अन्त में आर्तध्यान में कौन-सी लेश्या होती है और आर्तध्यान का स्वामी कौन है अर्थात् आर्तध्यान किन गुणस्थानवी जीवों को होता है, इसकी चर्चा है। इस प्रकार गाथा ६ से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy