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________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक महत्त्वपूर्ण शोध कार्य : ३१ आध्यात्मिक विकास की सूचक हैं। इसके अतिरिक्त कर्म - निर्जरा की अवस्थाओं के आधार पर एक दशविध वर्गीकरण भी हमें उपलब्ध होता है। वस्तुतः इसी दशविध वर्गीकरण का विकसित रूप हमें गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में मिलता है। जैन दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास तथा चैतसिक एवं चारित्रिक विशुद्धिको आधार बनाकर अनेक वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन में द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध, षट्विध, अष्टविध, दशविध और चतुर्दशविध वर्गीकरण हमें उपलब्ध होते हैं। जहाँ तक द्विविध वर्गीकरण का प्रश्न है यह वर्गीकरण जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में पाया जाता है। वैदिक परम्परा में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि को कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी भी कहा गया है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर कर्म निर्जरा के आधार पर जो दशविध वर्गीकरण किया गया है, वह वर्गीकरण बौद्ध परम्परा की दश भूमियों से आंशिक समानता और आंशिक भिन्नता लिए हुए है। इसी प्रकार योगबाशिष्ठ में अज्ञानदशा के सात और ज्ञानदशा के सात ऐसे जो चौदह वर्ग निर्धारित किए गए हैं, वे जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से आंशिक समानता रखते हैं। जैसा कि हमनें पूर्व में कहा है कि जैन दर्शन में आज गुणस्थान सिद्धान्त जैन कर्मसिद्धान्त के अन्तर्गत कर्मों की निर्जरा और आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों के मूल्यांकन करने का एकमात्र आधार है। इस प्रकार त्रिविध आत्मा की अवधारणा, षट्लेश्याओं की अवधारणा, आठ योगदृष्टियों की अवधारणा, कर्मविशुद्धि की दस अवस्थाओं की अवधारणा और चौदह गुणस्थानों की अवचारणा- ये सभी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की चर्चा करने के प्रमुख आधार रहे हैं। * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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