________________
४
:
श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
इन्होंने 'तत्त्वसंग्रह' तथा 'माध्यमिकालंकारकारिका' नाम के दो पार्यन्तिक बौद्धशास्त्रीय ग्रन्थों का प्रणयन किया है। शून्यवाद : मायावाद
महायान-सम्प्रदाय का शून्यवाद आचार्य शंकर के मायावाद का समीपी है। जिस प्रकार आचार्य शंकर 'माया' को सत् और असत् से विलक्षण एवं अनिर्वचनीय कहते हैं, उसी प्रकार शून्यवादी माध्यमिक भी 'शून्य' को सत् और असत् से विलक्षण एवं अनिर्वचनीय कहते हैं। वेदान्त की माया के समान शून्य भी अज्ञान-रूप है। इसी अज्ञान या अविद्या के कारण यह जगत् सत् जैसा प्रतिभासित होता है। शंकर के अनुसार, वस्तुतः यह जगत् मिथ्या है, केवल ब्रह्म ही सत्य है। ('ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या')। शून्यवादी माध्यमिक भी इसी प्रकार जगत् को शून्य (असत्) और शून्य को परमार्थ सत्य मानते हैं। ब्रह्म और शून्य एक ही तत्त्व हैं। 'महोपनिषद' और 'योगस्वरोदय' में भी ब्रह्म को शून्य कहा गया है ('शून्य तु सच्चिदानन्द निःशब्दब्रह्म शब्दितम्')।
शून्यवादी माध्यमिक आचार्य सत्य के दो रूप - 'संवृतिसत्य' और 'परमार्थसत्य' स्वीकार करते हैं। संवृतिसत्य व्यावहारिक या लौकिक सत्य होता है। संवृति.का अर्थ अज्ञान या अविद्या है। यह सब पदार्थों को आवृत-आच्छादित करता है, इसलिए इसे 'संवृति' कहते हैं ('समन्ताद् वरणं संवृतिः। अज्ञानं समन्तात् सर्वपदार्थतत्त्ववच्छादनात् संवृतिरिच्युते', माध्यमिककारिकावृत्ति)।
सांसारिक दृष्टि से यह संवृति भी दो प्रकार की होती है - तथ्यसंवृति और मिथ्यासंवृति। जब निर्दोष या निर्मल इन्द्रियों द्वारा जागतिक पदार्थों को प्रत्यक्ष ज्ञान की वस्तु बनाया जाता है, तब उसे 'तथ्यसंवृति' कहते हैं, अर्थात् जिसे व्यावहारिक दृष्टि से सत्य कहा जाता है और जब दोषपूर्ण इन्द्रियों द्वारा किसी पदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान किया जाता है, तब उसे व्यावहारिक दृष्टि से 'मिथ्यासंवृति' कहा जाता है।
त्रिकालसत्य या त्रिकालाबाधित होने के कारण शून्य तथा निर्वाण को परमार्थरूप कहा गया है। समस्त धर्मों की नि:स्वार्थता को 'परमार्थसत्य' कहते हैं। इसे ही शून्यता, तथता, भूतकोटि और धर्मधातु भी कहते हैं : 'सर्वधर्माणां नि:स्वभावता, शून्यता, तथता, भूतकोटिः, धर्मधातु रिति पर्यायाः।" इसे वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता और न इसे चित्त द्वारा ही गोचर किया जा सकता है, यहाँ तक कि वर्णमाला के अक्षरों द्वारा या शब्दों के माध्यम से भी इसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। यह 'वाङ्मनस्गोचर' है, शब्दातीत है। इसे हम न तो शून्य कह सकते हैं, न