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संस्कृत छाया
कनकप्रभोऽपि साधयित्वा विद्यां प्रज्ञप्ति- नामिकां विधिना । विद्याप्रभावसञ्जातगुरुकसामर्थ्यविस्तारः ।। ६३ ।। उज्झित्वा निजवंशक्रममनवेक्ष्याऽ यशः पटहकं लोके । बहु मत्वाऽविवेकमविचार्य दुर्गति गमनम् ।। ६४ । । अनपेक्ष्य गुरुभावमङ्गीकृत्य तथाऽ दाक्षिण्यम् । राजश्रीलोलुपेन विद्याबलदर्पभृतेन ।। ६५ ।।
ज्वलनप्रभस्य ज्येष्ठस्य भ्रातुः पितृ-वित्तीर्ण - राज्यपदम् । आच्छिन्न तु कनकप्रभेण विद्याप्रभावात् । । ६६ ।।
कुलकम् ।।
गुजराती अर्थ
( कनकप्रभ पण) विधीपूर्वक प्रज्ञप्ति नामनी विद्याने साधीने विद्याना प्रभावथी उत्पन्न थयेल मोठा सामर्थ्यना विस्तारवाळो थई पोतानी वंश परंपराने छोडीने लोकमां अपयशना पडहनी परवा कर्या वगर अविवेकने महत्त्व आपीने दुर्गतिना गमनने विचार्या वगर मोटानी अपेक्षा करीने अशिष्टतानो स्वीकार करीने राज्यलक्ष्मीमा लोलूप अने विद्याना बळना अभिमानथी भरेला कनकप्रभे, मोटाभाई ज्वलनप्रभने पितास आपेल राज्यपदने विद्याना प्रभावथी छीनवी लीधुं.
हिन्दी अनुवाद
( कनकप्रभ भी) विधिपूर्वक प्रज्ञप्ति विद्या को सिद्ध करके विद्या के प्रभाव से प्राप्त महान सामर्थ्य के विस्तारवाला, अपनी वंश परम्परा को छोड़कर, लोक में अपयश के नगाड़े की परवाह किए बिना अविवेक को ही प्रधान माननेवाला बड़ों की उपेक्षा करके, दुर्गति गमन की भी चिंता नहीं करके, अदाक्षिण्य युक्त होकर राज्यलक्ष्मी का लालची और विद्याबल के घमंड से भरे कनकप्रभ ने पिता द्वारा अर्पित बड़े भाई ज्वलनप्रभ के राज्य को विद्या के प्रभाव से छीन लिया ।
चतुर्भिः
गाहा
तत्तो अहिट्ठियं तं रज्जं सव्वंपि उग्ग- - तेएण ।
सामाइणा सव्वो (वं?) वसीकओ (यं?) खयर - निउरंबो (बं ? ) ।।६७।।
संस्कृत छाया
ततोऽधिष्ठितं राज्यं सर्वमप्युप्रतेजसा ।
सामादिना सर्वं वशीकृतं खचरनिकुरम्बम् ।।६७।।
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