SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७ विचाररमणीय मूर्त रूप दिया है। उनके मन में अनेक संवेदनाओं का स्फुरण तथापि मन का अन्तश्चेतना से सम्पर्क और अन्त में संवेदनाओं का उपलब्ध संस्कारों में संश्लिष्टीकरण के पश्चात् 'ध्यान' नामक इस ग्रन्थ की सर्जना हुई है। अनुभूति के समन्वित रूप ने इसे आमजन के लिए श्रेयष्कर एवं प्रेरणादायी बना दिया है। जैन धर्म जहाँ एक ओर व्यापक आदर्श-युक्त वैज्ञानिक जीवन-पद्धति प्रस्तुत करता है, वहीं मानव की आचार-शुद्धि एवं साधना की पृष्ठभूमि में चरम उन्नति का आश्वासन भी देता है। वस्तुतः 'ध्यान पथ मानव को उसी चरम उन्नत्ति की ओर अग्रसर करता है। प्रस्तुत ग्रन्थ अपने कलेवर में अप्रतिम है। यह जीवन तथा जीवन-दृष्टि की एकाकारता के लिए प्रयत्नशील है। ग्रन्थ का प्रस्तुतीकरण जीवनशैली की अपूर्णता को पूर्णता प्रदान के लिए व्यग्र प्रतीत होता है। प्रणेता का प्रयत्न है कि आत्मशुद्धि के माध्यम से ध्यान-मार्ग में प्रविष्ट होकर उसके क्रियात्मक स्वरूप तथा उपलब्धि को आत्मशुद्धि की साधना का आगमिक आधार बनाया जाय, तब धर्म का शुद्ध स्वरूप समक्ष होगा तथा सद्गुरु की पहचान होगी। शरणभाव को अंगीकार करके ही ओंकार के ध्वनि योग का साक्षात्कार हो सकता है। सामायिक और मौन द्वारा अपनी संभाव्य शक्तियों की संभावनाओं का आकलन कर साधक को अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके वास्तविक बल द्वारा संयम का मनन कर आहार पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए तथा अणुव्रत एवं महाव्रत का पालन करना चाहिए, तभी 'स्वयं' की अनुभूति होगी। ग्रन्थ का संघटनात्मक कौशल प्रशंसनीय है। विषय व्यष्टि रूप में विविध है, उनके परिदृश्य एवं आयाम में विविधता है, किन्तु समष्टि रूप में उनका संकलन आनुभविक-प्रामाणिकता को एकाकार कर देता है। ध्यान-मार्ग के विरोधाभासों का सरल प्रस्तुतीकरण का प्रयास स्तुत्य है। ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने बहुत ही निपुणता के साथ यह दिखाने का प्रयास किया है कि 'ध्यान' की पूर्व-पीठिका के रूप में व्रत, आहार, मौन, शरणभाव, सामाजिक संगठन का सूत्र, वास्तविक बल तथा संयमध्यान इस युग के लिए सर्वथा सार्थक है। सामाजिक विसंगतियाँ, मनोविकार, मानसिक असंतुलन का त्रिगुट ध्यान पथ का स्वाभाविक अंत है और ध्यान का मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग है। चित्रों के माध्यम से योगासन को समझाने का प्रयास ग्रन्थ की मौलिकता को दर्शाता है तथा विभिन्न ध्यान-शिविर द्वारा ध्यानार्थियों के विचारों को संकलित कर आम सुधी पाठकों के लिए प्रेरणा का एक मंच प्रदान करता है। बाजारीकरण के इस दौर में जहाँ ध्यान और योग को बाजार की एक बिकाऊ वस्तु बनाकर पेश किया जा रहा है, वहीं आचार्य शिवमुनि जी इस ग्रन्थ में लघुता में
SR No.525062
Book TitleSramana 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy