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जैन परम्परा में मंत्र-तंत्र :
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के तीसवें परिशिष्ट के रूप में सन् १९३७ में अहमदाबाद से हुआ है। रचनाकार ने ग्रन्थारम्भ में इसे 'मंत्र द्वात्रिंशिका' तथा अन्त में 'महामंत्र द्वात्रिंशिका' कहा है। इसमें कुल पांच अधिकार हैं, जिनमें क्रमश: २०, ४२, ४१, ५० एवं २४ श्लोक हैं। मंगल पद्य के बाद कहा गया है कि स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन, वश्याकर्षण, जम्भन, विद्वेषण, मारण, शान्तिक, पौष्टिक आदि को विधि के अनुसार इस शास्त्र में कहूंगा। प्रथम अधिकार के आठवें श्लोक में बताया है कि 'विद्याप्रवादपूर्व के तीसरे प्राभृत से श्री वीर स्वामी के द्वारा कर्मघात के निमित्त यह उद्भत किया गया है।' प्रथम अधिकार को ‘सर्वकर्मकरण' नाम दिया गया है। द्वितीय अधिकार में अपराजिता देवी की सिद्धि प्राप्त करने वाले को लोक में अपराजित बताया गया है। यहाँ पार्श्वयक्ष की सिद्धि का विधान भी कहा गया है। तृतीय अधिकार में स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन आदि के मंत्र एवं विधियां बतलाई गई हैं। यहाँ 'पिशाचिनी' नामक विद्या का सिद्धिविधान भी कहा गया है। तीसवें पद्य में मंत्र-विधि को 'परमागमसंप्रोक्तं' कहा गया है। यहाँ यह भी बताया गया है कि मनुष्य जिस-जिस सांसारिक कार्य का विचार करता है इस मंत्र के प्रभाव से उसे वह सब कुछ प्राप्त होता है।" ___चतुर्थ अधिकार में अम्बिका देवी, सरस्वती देवी और पद्मावती देवी की आराधना का विधान बताते हुए उन्हें सर्वकार्यसाधिका निरूपित किया गया है। इस अधिकार के तीसवें पद्य में 'सेतुबन्ध' काव्य का उल्लेख प्राप्त होता है। आगे कहा है कि मनीषियों को सत्पात्रों में सिद्धि का व्यय करते रहना चाहिए, अन्यथा सिद्धि क्षीण हो जाती है। पंचम अधिकार में गुरु-शिष्य दोनों के लिए दिशानिर्देश है। अन्त में ग्रन्थकार ने कहा है कि योग्य पात्रों के हित की कामना से मैने श्रुतसागर का आलोड़न करके महारत्नों के समान इन मंत्रों का कथन किया है। २. ज्वालामालिनी-कल्प
इसके कर्ता इन्द्रनन्दि हैं। इनके गुरु का नाम बप्पन्दि या बप्पणनन्दि है। ग्रन्थ प्रशस्ति के अनुसार इसका रचनाकाल शक सम्वत् ८६१ (ई० सन् ९३९) है।' इसकी एक हस्तलिखित प्रति जैन सिद्धांत भवन, आरा में सुरक्षित है। इसका प्रकाशन सन् १९६६ में मूलचंद किसनदास कापड़िया, सूरत ने किया है। इसमें स्व० पं० चन्द्रशेखर शास्त्री की भाषा टीका भी छपी है। इस ग्रन्थ का समीक्षात्मक विवरण 'अनेकान्त' वर्ष-१, पृ० ४३० एवं ५५५ आदि पर पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने प्रकाशित किया था। इसमें कुल पाँच सौ श्लोक हैं। ग्रन्थ दस अधिकारों में विभक्त है - १. मन्त्री २. ग्रह ३. मुद्रा ४. मंडल ५. कटुतैल ६. यंत्र ७. वश्यतंत्र ८. स्नपनविधि ९. नीराजन-विधि और १०. साधन-विधि।