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________________ ७० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७ तहिं तहिं१३९ पञ्चविहस्स . . . . . .. . .उक्कंणं विणोदेदुम्। तहि ४० पढमं पेसिदो। तहिं१४१ मंदाइणीतीरे . . . . . . .. . . मे पिअसही उव्वसी। तहिं१४२ दीहाउणा अवस्सं संभाविदव्वा -त्ति। ऊपरलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि हेमचन्द्राचार्य ने अपने प्राकृत-व्याकरण में केर, क्क, डिक्क, एच्चय, व्व, इक, णय, डिम, तण, डेल्ल, इत्तिअ, डेत्तिअ, डेत्तिल, डेदह, हुतं, आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर, त्तो, दो, हि, ह, त्थ, सि, सिअं, इआ, क, ल्लो, मया, डमया, डिअम् तथा डालिअ इत्यादि अनेक तद्धित प्रत्ययों का उल्लेख किया है.४३ परन्तु कालिदास ने अपने नाटकों में प्राकृत के इनमें से केवल क, एत्तिअ, केर, तण, त्थ, दो तथा हिं -इन सात ही तद्धित प्रत्ययों का प्रयोग किया है। सन्दर्भ : स्वार्थे कश्च। प्राकृत-व्याकरणम, आचार्य हेमचन्द्र, भण्डारकर ऑरियन्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना, संस्करण, १९८०, २/१६४. ध्रुवो मया डमया। वही, २/१६७. मनाको न वा डयं च। वहीं, २/१६९. मिश्राड्डालिअः। वही २/१७०. शनैसो डिअम्। वही, २/१६८. ध्रुवो मया डमया। वही, २/१६७. रो दीर्घात्। वही, २/१७१. .. ८. विद्युत्पत्र-पीतान्धाल्लः। वही, २/१७३. ९. ल्लो नवैकाद्वा। उपरेः संव्याने। वहीं, २/१६५-१६६. १०. क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्। वही, १/१७७. ११. पाण्डेय, डॉ. रमाशङ्कर, मालविकाग्निमित्रम्, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, १९७९, प्रथमोऽङ्कः, पृ० ७. वही, पृ० ११. १३. वही, चतुर्थोऽङ्कः, पृ० ११७. १४. मिश्र, यदुनन्दन (व्याख्याकार), अभिज्ञानशाकुन्तलम्, चौखम्भा पब्लिशर्स, वाराणसी, संस्करण, १९९९, चतुर्थोऽङ्कः, पृ० २०८. & * ;
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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