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________________ वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ बनता, क्योंकि शब्द तो आकृत्यादि से रहित होता है, जबकि उससे आकृत्यादि से युक्त अर्थ का ज्ञान होता है, अतः शब्द में अनुपदेशत्व का प्रसंग होगा । ५८ : श्रमण, ४) यदि यह कहें कि यह शब्द से अवच्छिन्न प्रतीति का हेतु होता है तो कर्ण भी शब्दावच्छिन्न होने से उपदेशत्व से प्रसक्त होगा और दूसरी ओर शब्द अपने अवच्छेद से युक्त प्रतीति उत्पन्न नहीं कर सकता । अतः शब्द अनुपदेशत्व प्रसंग से युक्त होगा। ५) यदि यह कहें कि अभिधान क्रिया ऐसी प्रतीति है जिसका कारण शब्द है, तब भी उचित नहीं है, क्योंकि अभिधान क्रिया के प्रति भी शब्द से उपदेशत्व प्रसंग होगा तथा आकाशानुमान में शब्द का आश्रय होने के कारण शब्द उसका कारण होगा, अत: यहाँ भी शब्द में उपदेशत्व का प्रसंग होगा, जबकि यहाँ अनुमान होता है। इस प्रकार उपदेश को यदि अभिधान क्रिया मानें तो अभिधान-क्रिया का अपना स्वरूप ही निश्चित नहीं, तब उससे उपदेश का अर्थ कैसे ग्रहण करेंगे ? सिद्धान्त पक्ष में जयन्त भट्ट अभिधान क्रिया का पूर्ववर्णित सभी विकल्पों से भित्र अर्थ प्रस्तुत करते हैं। अभिधान क्रिया श्रोत्रग्राह्य वस्तु (शब्द) से उत्पन्न होने वाली तथा श्रोत्रग्राह्य वस्तु (शब्द) के अर्थ का ज्ञान है। लोक में अभिधान-क्रिया का इसी अर्थ में व्यवहार होता है जो अर्थ उक्त या अभिहित है वही लोक में व्यपदिष्ट होता है, क्योंकि वह व्यपदिष्ट होने वाला अर्थ उसी रूप की प्रतीति का विषय होता है | यहाँ जयन्त भट्ट ने वैयाकरणों के इस मत का खण्डन किया है कि अर्थ-प्रतीत वर्णों से नहीं, वरन् वर्णों से अभिव्यक्त स्फोट से होती है । २१ जयन्त भट्ट का कहना है कि श्रोत्र से ग्रहण होने वाला विषय शब्द होता है और वर्ण राशि रूप यह शब्द ही शाब्द ज्ञान का कारण है। श्रोत्रज ज्ञान ही वर्ण का स्वरूप है। यदि यह मानें कि जिससे अर्थ प्रतीति हो, वही शब्द है, तब धूमादि द्वारा अग्नि आदि का अनुमान होने के कारण धूमादि भी शब्द हो जायेगें, अतः श्रोत्र से ग्राह्य वर्ण-राशि से जन्य ज्ञान का जो कारण धूमादि होता है, वह शब्द है । अतः शब्द द्वारा अर्थ प्रतीति तभी सम्भव है जब वह श्रोत्रगृहीत हो और तभी शब्द का शब्दत्व है। शब्द किसी अर्थ की प्रतीति कराता हुआ ही शब्द कहा जाएगा। यदि शब्द और अर्थप्रतीति का कोई सम्बन्ध न मानें तो शब्द का शब्दत्व समाप्त हो जायेगा । यदि यह कहें कि प्रतीति तो संविदात्मक होती ही है, अतः अभिधान क्रिया कोई नया ज्ञान-भेद है और इस प्रतीति का जो कारण हो वही उपदेश है, तो अतिव्याप्ति दोष आ जाता है, क्योंकि प्रतीति का कारण न केवल अभिधान क्रिया होती है, वरन् इन्द्रियादि अर्थ, धूमादिलिंग एवं इनका ज्ञान, सादृश्य आदि ज्ञान भी होते हैं । अतः इन सबसे उपदेशत्व की प्रसक्ति
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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