________________
५६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
सम्बद्ध ज्ञान की जनक होती हैं। इस बात के निर्धारण के लिए सूत्रकार ने 'भूतेभ्यः ' पद का ग्रहण किया है।११ इन्द्रियाँ भूत-प्रकृतिक होती हैं और भूतों के गुण नियत होते हैं, अतः इन्द्रियाँ नियत गन्धादि अर्थों के ज्ञान का कारण होती हैं। यदि इन्द्रियाँ भूतों से उत्पन्न न होती तो इनके लक्षण - 'स्वविषयोपलब्धिजनकत्व' का निर्वाह नहीं हो सकता था। १२ इसलिए 'भूत' पद का ग्रहण लक्षण के निश्चय के लिए हुआ है, इसी प्रकार लक्षण के निश्चय के लिए ही प्रस्तुत पद में आप्तपद का ग्रहण हुआ है। 'यहाँ वटवृक्ष में यक्ष निवास करता है', इस तरह का का ऐतिह्य प्रमाण भी पौराणिकों द्वारा माना गया है; जिसका अन्तर्भाव नैयायिक शब्द - प्रमाण में करते हैं। जयन्त भट्ट का मत है कि चूँकि ऐतिह्य भी उपदेश रूप होता है, अतः 'उपदेश: शब्द:' इस चरण के अनुसार ही ऐतिह्य प्रमाण का अर्न्तभाव शब्द - प्रमाण में होगा, अन्यथा यदि 'आप्तोपदेश: शब्द' इसे शब्द - प्रमाण मानने पर उसके मूल वक्ता के ज्ञात न होने से १३ और प्रस्तुत वक्ता की आप्तता का संदेह होने से ऐतिह्य की आप्तोपदेशता सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में ऐतिह्य का शब्द में अन्तर्भाव न हो पाने से प्रमाणन्तरत्व की आपत्ति होगी, जबकि सूत्रकार ने सूत्र में केवल चार प्रमाणों का ही संकीर्तन किया है, इसलिए सूत्रकार का उद्देश्य आप्तपद के ग्रहण के लिए लक्षणविनिश्चय ही रहा होगा। अतः आप्तपद लक्षण का घटक नहीं है।
१४
नैयायिक यह मानते हैं कि 'आप्तोपदेश: शब्द:' यही परिभाषा युक्तियुक्त है और इसके निश्चय के लिए आप्तपद का ग्रहण भी ठीक है, परन्तु पूर्वसूत्रों से अव्यभिचारादि विशेषण पदों की अनुवृत्ति ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि यहाँ केवल शब्द - प्रमाण का लक्षण देना अभीष्ट है। प्रमाण के सामान्य लक्षण से ही स्मृति, संशय, विपर्यय आदि का निषेध हो गया है, अतः यहाँ शब्द प्रमाण के प्रमाणत्व निर्धारण के लिए सामान्य लक्षण आवश्यक नहीं है, वरन् सजातीय प्रत्यक्षादि प्रमाणों का व्यवच्छेद ही यहाँ अभीष्ट है और इसके लिए 'उपदेश' पद पर्याप्त है। 24 जहाँ तक 'उपदेश' और 'शब्द' पदों की पर्यायता का प्रश्न है, तो पर्याय- पद रखने की यह प्रवृत्ति तो सूत्रों में अन्यत्र भी देखी जा सकती है । २६ 'न्यायसूत्र' में बुद्धि का लक्षण 'उपलब्धि' दिया है?" जो बुद्धि का ही पर्याय है, तथापि वह सजातीय व्यवच्छेदक है, अतः पर्यायता होना कोई दोष नहीं है। १८ अतः पर्यायता के निराकरण के लिए भी अव्यभिचारादि विशेष पदों की अनुवृत्ति की कोई आवश्यकता नहीं है।
१५
१७
नैयायिकों का तीसरा भी पक्ष है जो न तो उक्त वर्णित प्रथम पक्ष की तरह ज्ञानादि पूर्वोक्त सूत्रों की अनुवृत्ति को आवश्यक मानता है, और न ही द्वितीय पक्ष के शब्द - प्रमाण लक्षण के लिए सामान्य- लक्षण और विशेष लक्षण की गवेषणा को