SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैदिक श्रमण-परम्परा और उसकी लोक-यात्रा : ४५ जीवन के प्रति क्रान्तिकारी और मौलिक चिन्तन से शून्य थे। श्रमण-परम्परा का संगठन बाद में कतिपय प्रगतिशील चिन्तकों द्वारा हुआ जो आगे चलकर अवैदिक या नास्तिक जैन और बौद्ध सम्प्रदायों के रूप में स्थिर और लोक समादृत हुए। इनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर वैदिक-परम्परा, विशेषकर ब्राह्मणों से इतर क्षत्रियों द्वारा प्रवर्तित उपनिषदों की परम्परा में भी 'मनि', 'यति' या 'संन्यास' रूप धर्म की प्रतिष्ठा हुई। श्रमण, यति, व्रात्य आदि सभी पृथक्-पृथक् थे तथा इनका अस्तित्व प्राग्वेदीय था।' इस प्रकार इस दृष्टि का सबसे अधिक आक्षेप चातुर्वर्ण्य व्यवस्था पर है, उसमें भी ब्राह्मण-वर्ण इस मत में सर्वाधिक रूढ़िवादी है। वेद में इसी 'ब्राह्मणवाद' का प्राधान्य है इसलिए 'ब्राह्मण' और 'श्रमण' ये दोनों परस्पर प्रतिगामी परम्पराएँ है। यह इस दृष्टि का सारभूत अभिप्राय है। किन्तु इससे उपरक्त नेत्रवाले समीक्षकों को बृहदारण्यक उपनिषद् में स वा एष महानज आत्मा-- - - - - - तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेनैतमेव विदित्वा मुनिर्भवति। यह सन्दर्भ अथवा ऐसे ही अन्य सन्दर्भ दिखलाई पड़ते हैं जिनके अनुसार इनकी पूर्वोक्त मान्यता खण्डित होती हुई दीखती है अर्थात् “जिस आत्मतत्त्व को वेदों का अनुवचन (स्वाध्याय) करके ब्राह्मण लोग जानने की इच्छा करते हैं। यज्ञ, दान तथा तप के द्वारा जिसे जानकर व्यक्ति ‘मुनि' हो जाता है। उस अत्मतत्त्व की इच्छा करते हुए परिव्राजक प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं", इस उद्धरणोक्त वचनों के अनुसार जब यह सिद्ध होने लगता है कि 'ब्राह्मण' और 'मुनि' या 'परिव्राजक' नितान्त भिन्न नहीं हैं तथा वेदों का स्वाध्याय भी सामान्य कर्मकाण्ड वाग्जाल मात्र न होकर आत्मतत्त्व को प्राप्त कराने का एक साधन है तब ये लोग बड़ी चतुराई से चातुर्वर्ण्य के अन्तर्गत आने वाले ब्राह्मणवर्ण से इन ब्रह्मणविविदिषु ब्राह्मणों को पृथक सिद्ध करने लगते हैं।" वस्तुत: वैदिक वाङ्मय में कहीं भी ऐसी विभाजक रेखा दिखलाई नहीं पड़ती। वर्णान्तर्गत ब्राह्मण भी इसीलिए ब्राह्मण कहलाता है कि उसमें 'ब्रह्मजिज्ञासा' या 'विविदिषा' होती है, यदि यह न हो तो उसकी अशक्ति है- जिसकी स्थान-स्थान पर निन्दा की गई है और यह कहा गया है कि सच्चे ब्राह्मण में संसार के प्रवृत्तिमार्ग से निर्वेद होता ही है और 'निर्विण्ण' अर्थात् विरक्त होकर वह 'ब्रह्मजिज्ञासु' बनकर प्रव्रज्या भी ग्रहण करता है। ब्राह्मण का शरीर क्षुद्र कामोपभोगों के लिए नहीं अपितु ब्रह्मप्राप्ति के लिए प्राप्त होता है। कतिमय श्रुति स्मृति वचन हमारे इस कथन के प्रमाण रूप में उद्धृत किए जा सकते हैं, यथा
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy