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धार्मिक सहिष्णुता और धर्मों के बीच मैत्रीभाव
जैन- दृष्टिकोण : ४१
धर्म को अपना अस्तित्व बनाए रखने और तदनुसार काम करने का पूर्ण अधिकार है एवं अन्य धर्मों के समान ही उसे आदर दिया जाना चाहिए।
जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ईसा की पाँचवी शताब्दी) के अनुसार किसी भी धर्म पर मिथ्यावादी होने का दोषारोपण तभी हो सकता है, जबकि वह अन्य धर्मों की मान्यताओं का खण्डन करता है और केवल अपने ही धर्म के पूर्ण सत्य होने का दावा करता है। यदि वह अन्य धर्मों में निहित सत्यांशों को भी स्वीकार करता है, तो नि:संदेह वह भी सत्यपरायण कहलाने का अधिकारी होता है। वे आगे कहते हैं कि प्रत्येक विचारधारा या धर्म अपनी उद्भव परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सही होता है, परन्तु यदि उनमें से प्रत्येक यदि स्वयं के ही पूर्ण सत्य होने का दावा करता है और अन्य धर्मों का अनादर करता है, तो वह सच्चा धर्म नहीं हो सकता है। इसी प्रकार जब वह किसी दूसरे धर्म - विशेष की धार्मिक आस्थाओं, उनके विश्वास एवं सिद्धांतों का खण्डन करने का प्रयास करता है, तो वह धर्म मिथ्यावादी हो जाता है । ११ जैनाचार्यों की दृष्टि में किसी विचारधारा या धर्म- विशेष का सत्य होना, उसके द्वारा दूसरे धर्मों या विचारधाराओं के भी सत्य होने की स्वीकारोक्ति पर निर्भर करता है । सिद्धसेन स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो लोग अनेकांतदृष्टि को स्वीकार करते हैं, वे कभी भी सही या गलत आधार पर विभिन्न धर्मों में विभेद नहीं करते हैं और सभी धर्मों के प्रति समादरभाव रखते हैं । १२ वर्तमान समय में, जबकि साम्प्रदायिक सौहार्द तथा सामाजिक सन्तुलन के लिए धार्मिक मतान्धता एक गंभीर खतरा बनती जा रही है, विश्व के सभी धर्मों में मैत्रीभाव न केवल आवश्यक है, बल्कि यही एकमात्र उपाय है, जिसके द्वारा मानवजाति को इस संकट से बचाया जा सकता है।
जैनाचार्य विश्व के सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते हैं, परन्तु एकता से उनका आशय ऐसी सर्वग्रासी एकता से नहीं है, जिसमें सभी धर्मों का स्वतंत्र अस्तित्व एवं पहचान ही मिट जाए। वे धर्मों की उस विशेष एकता में विश्वास करते हैं, जिसमें सभी धर्मों में समान रूप से प्रतिपादित सद्गुणों पर आधारित मूलभूत अखण्डता को बनाए रखने के लिए सभी धर्म परस्पर एक-दूसरे से जुड़ें तथा जिसमें प्रत्येक धर्म का स्वतंत्र अस्तित्व एवं पहचान अक्षुण्ण रहे। साथ ही सभी धर्मों के प्रति सबका समादरभाव हो । दूसरे शब्दों में, वे सभी धर्मों के मैत्रीपूर्ण अस्तित्व और धर्म के मूलभूत लक्ष्य, अर्थात् मानव जाति के कल्याण के लिए काम करने में विश्वास करें। इस धरा पर से धार्मिक-संघर्षों एवं हिंसा की जड़ें काटने का एकमात्र उपाय यह है कि मानव-समाज में सहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण विकसित किया जाए और सभी धर्मों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाए।