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३० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
में सेचनक हाथी और हार। जैन परम्परा में जैसे चेटक का प्रहार अमोघ बताया है वैसे ही बौद्ध ग्रन्थों की दृष्टि से वज्जी लोगों के प्रहार अचूक थे। नगर की रक्षा का मूल आधार जैन दृष्टि से स्तूप को माना गया है तो बौद्ध दृष्टि से पारस्परिक एकता, गुरुजनों का सम्मान बताया गया है। इसका जितना व्यवस्थित वर्णन जैन परम्परा में है उतना बौद्ध परम्परा में नहीं हो पाया है। वैशाली की पराजय में दोनों ही परम्पराओं में छद्म भाव का उपयोग हुआ है। वैशाली का युद्ध कितने समय तक चला इस सम्बन्ध में जैन दृष्टि से एक पक्ष तक तो प्रत्यक्ष युद्ध हुआ और कुछ समय प्राकारभंग में लगा। बौद्ध दृष्टि से वस्सकार तीन वर्ष तक वैशाली में रहा और लिच्छवियों में भेद उत्पन्न करता रहा। डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी के अभिमतानुसार युद्ध की अवधि (५६२ - ५४६ ई० पू० ) कम से कम १६ वर्ष तक की है । ४१
इस प्रकार हम देखते हैं कि अजातशत्रु कूणिक को दोनों ही परम्पराएँ अपने धर्म का अनुयायी मानती हैं। संभवत: शुरु में वह जैन था। जैन ग्रन्थों में उसकी धार्मिक भक्ति की प्रशंसा भरी पड़ी है। पितृ-हत्या के दोष के जघन्य पाप से वह जैन परम्परा में मुक्त है । कूणिक अपनी रानियों और विपुल परिजनों के साथ नातपुत से प्रायः मिलने जाता था । वैशाली और चम्पा में वह महावीर के सम्पर्क में आता है और जैन संघ के प्रति अपना सुंदर भाव प्रकट करता है । ४२ परन्तु बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार वह बाद के जीवन में जैन धर्म के बजाय बौद्ध धर्म का भक्त हो गया था। अपने पिता का घात करने के पश्चात् वह शान्ति के लिए बुद्ध के पास गया और प्रार्थना की- 'भगवान मेरे इस अपराध को अपराध स्वीकार करें जिससे भविष्य में मैं उससे निवृत्त हो सकूँ। ' बुद्ध ने उसके इस पाप निवेदन को स्वीकार किया। इस कथन से यह तात्पर्य नहीं है कि वह बौद्ध बन गया था। ४३
अन्त में चम्पानगरी में कुमारों (श्रेणिक - पुत्रों) की माताओं द्वारा उनके कृत कर्मों के विषय में पूछने पर भगवान महावीर कहते हैं कि- ये दसों कुमार मरकर नरक में जाएंगे और वहाँ से निकल कर महाविदेह में जन्म लेंगे। वहाँ वैराग्य और श्रमण धर्म स्वीकार करके उत्कृष्ट साधना कर मुक्ति को प्राप्त करेंगे। इनके अन्य भ्राता (२३ भाई) श्रमण धर्म को स्वीकार कर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए थे। उनकी माताएँ भी श्रमण धर्म को स्वीकार कर मुक्त हुई थीं। इसमें पुत्र और माताओं के नाम भी एक सदृश हैं। इस प्रकार 'निरयावलिया-कल्पिकासूत्र' की कथा यहाँ पर सम्पन्न होती है। ४४ इस उपांग में मगधनरेश श्रेणिक और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन है, कूणिक का जीवन परिचय है, वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक के साथ कूणिक के युद्ध का वर्णन है, पुत्र के प्रति पिता का अपार स्नेह भी इसमें वर्णित है। इस प्रकार यह उपांग सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं को प्रस्तुत करता है ।