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________________ निरयावलिया-कल्पिका : एक समीक्षात्मक अध्ययन : २७ उसके गर्भ में आने पर राजा श्रेणिक के उदर का माँस खाने का दोहद पैदा हुआ जिसे राजा ने अभय कुमार की सहायता से पूर्ण किया। मेरे द्वारा तुम्हें उकरड़ी पर फेंक दिए जाने पर कुकुक्ट ने तुम्हारी अँगुली पर चोंच मार दी और उसमें घाव हो गया। राजा को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुम्हें तुरन्त मँगवा लिया | वेदना से पीड़ित होने पर राजा स्वयं तुम्हारा मवाद चूस कर फेंक देते और तुम चुप हो जाते थे। माता से पिता के प्रेम की बात जान वह कुठार लेकर उन्हें मुक्त करने जाता है, लेकिन उसे देखते ही श्रेणिक तालपुट विष खाकर अपने प्राण त्याग देते हैं । २७ बौद्ध साहित्य में भी यह प्रसंग मिलता है। अन्तर सिर्फ इतना है कि इसमें रानी को राजा के घुटने का रक्तपान करने का दोहद हुआ था, जिसे राजा ने वैद्य की सहायता से रक्त निकलवा कर पूर्ण किया था। " बच्चे के जन्म के पश्चात् राजा स्वयं उसे रानी से दूर कर देते हैं कि कहीं वह उसको कोई नुकसान न पहुँचा दे। किन्तु कुछ समय पश्चात् राजा स्वयं पुत्र को माता को सौंप देते हैं जिससे उनमें मातृ-प्रेम जागृत हो जाता है और वे उसका पालन करती हैं। एक बार अजातशत्रु की अँगुली फोड़ा हो जाता है। बालक की वेदना पर स्वयं राजा पुत्र की अँगुली से मवाद चूस लेते हैं और बालक शांत हो जाता है । २९ बड़े होने पर महत्त्वाकांक्षी अजातशत्रु को देवदत्त उकसाता है और वह अपने पिता बिम्बिसार को तापनगेह में डालकर स्वयं राजा बन जाता है। राजा से मिलने केवल अजातशत्रु की माता ही जा सकती थीं। अतः वे अपने बालों में भोजन छिपाकर ले जाने लगीं। बाद में अपने शरीर पर सुगंधित जल लगाकर जाने लगीं जिसे चाट कर राजा अपनी क्षुधा शान्त कर लेते थे। जब अजातशत्रु को इस बात का पता चला तो उसने माता का मिलना बन्द कर दिया और गुस्से में आकर राजा के पैरों को काटकर तेल और नमक लगाकर तलने का आदेश दिया जिससे राजा की मृत्यु हो गई। तभी पुत्र जन्म का समाचार सुन अजातशत्रु पुत्रप्रेम से आह्लादित हो अपने पिता की स्थिति का अनुभव करता है। वह अपने पिता को तापनगेह से मुक्त करना चाहता है, किन्तु तब तक उनके प्राणों का अन्त हो चुका होता है । ३० सेवक द्वारा पिता की मृत्यु का संवाद सुन वह अत्यन्त दुःखी होता है। कूणिक जन्म समय का दोहद, अँगुली में व्रण, पिता को कारागृह में डालना आदि का वर्णन दोनों ही परम्पराओं में कुछ भिन्नताओं के साथ मिलता है। इस भिन्नता का कारण उनका रचना काल हो सकता है। पं० दलसुखभाई मालवणिया ने 'निरयावलिया' की रचना वि०सं० के पूर्व की मानी है । ३१ अट्ठकथाओं का समय विक्रम की ५वीं शती है । ३२ तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कूणिक की क्रूरता का वर्णन दोनों परम्पराओं परन्तु जैन परम्परा के अनुसार श्रेणिक को कारागृह में डाला गया था तथा में है,
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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