________________
वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं की दार्शनिक पारस्परिकता : ९७
केवलज्ञान कहते हैं। यह सर्वज्ञता की स्थिति है। जो पूर्ण होता है, एक होता है, वह निरपेक्ष भी होता है। अतः यहाँ औपनिषदिक दर्शन का प्रभाव जैन दर्शन पर प्रकाशित होता है। इतना ही नहीं जब हम जैन प्रमाणमीमांसा के विभाजन पर दृष्टिपात करते हैं तो वहाँ भी वैदिक प्रमाणमीमांसा का स्पष्ट प्रभाव नजर आता है, क्योंकि सामान्य रूप से इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष कहा गया है। लेकिन जैन दर्शन इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष को परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत रखता है और आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहता है। जब हम भारतीय दर्शन की अन्य शाखाओं की दृष्टि से जैन दर्शन द्वारा किये गये प्रमाण के प्रकारों का मूल्यांकन करते हैं तो जैन दर्शन का परोक्ष ज्ञान 'मति' प्रत्यक्ष की श्रेणी में आ जाता है । यहाँ आचार्य अकलंक ने कुछ संशोधन करते हुए प्रत्यक्ष को दो भागों- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष के रूप में विभाजित कर दिया। इस विभाजन का दूसरा नाम इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष भी है। इस प्रकार इन्द्रिय और अर्थ के सत्रिकर्ष से होने वाले ज्ञान को आचार्य अकलंक ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष में रखा और आत्मा से होने वाले ज्ञान को नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तर्गत माना। अकलंक द्वारा किया गया यह विभाजन जैन प्रमाणमीमांसा पर वैदिक प्रमाणमीमांसा के प्रभाव को दर्शाता है। अकलंक द्वारा किये गये इस विभाजन के पीछे अन्य आचार्यों या सम्प्रदायों के बीच होनेवाले शास्त्रार्थ में आने वाली कठिनाइयाँ कही जा सकती हैं, क्योंकि व्यवहार में इन्द्रिय प्रत्यक्ष की ही प्रधानता है।
वैदिक परम्परा यज्ञ में विश्वास करती है। यज्ञ में दी जाने वाली बलि को यह हिंसा नहीं मानती है। लेकिन जैन मतावलम्बी इसे हिंसा कहते हैं। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार क्षत्रिय का धर्म युद्ध करना है। युद्ध में निश्चित रूप से हिंसा होती है। कृष्ण
स्वयं अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया है। इन बातों से ऐसा लगता है कि वैदिक परम्परा में अहिंसा को कम महत्त्व दिया गया है। किन्तु 'महाभारत' में कई स्थलों पर अहिंसा की गरिमा को इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे लगता है कि मानव जीवन में अहिंसा से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं है । उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित उक्तियाँ देखी जा सकती हैं
'शान्तिपर्व' में कहा गया है- अहिंसा स्वतः एक धर्म है और हिंसा एक अधर्म है | अहिंसा सबसे महान धर्म है, क्योंकि इससे सभी प्राणियों की रक्षा होती है । ४ 'अनुशासनपर्व' में कहा गया है- अहिंसा परम धर्म है, परमसत्ता है, परम सत्य है और अन्य धर्मों की उद्गमस्थली है। वह परम संशय, परम दान, परम फल, परम मित्र तथा परम सुख है। इतना ही नहीं यदि सभी यज्ञों में दान किया जाए, सभी तीर्थों में स्नान किया जाए, सब प्रकार के स्नानदान के फल प्राप्त हों तो भी अहिंसा धर्म से प्राप्त फल की तुलना में कम ही रहेंगे।