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________________ ९६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ क्योंकि वह निर्लिप्त होता है। उसका किसी से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता है और न उसे किसी की अपेक्षा होती है। लेकिन व्यवहार सापेक्षता से चलता है। समाज में सबको एक-दूसरे की अपेक्षा होती है। जिस समाज में हम रहते हैं वह निरपेक्ष नहीं, बल्कि सापेक्ष होता है। अतः समाज के लिए सापेक्षता की अनिवार्यता होती है। इसकी पूर्ति श्रमण परम्परा की जैन शाखा करती है । जैन दर्शन सापेक्षतावादी है। इसकी सापेक्षता अनेकान्तवाद, स्याद्वाद तथा अहिंसावाद के नामों से जानी जाती है। अनेकान्तवाद अनेक दृष्टियों, अनेक सीमाओं, अनेक अपेक्षाओं में विश्वास करता है। जैन तत्त्वमीमांसा बताती है कि किसी भी वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं।' धर्म से मतलब है लक्षण, विशेषता आदि। अनन्त धर्मों को सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकता है । वह कुछ धर्मों को ही जान पाता है। अनन्त धर्मों में से कुछ को एक व्यक्ति जानता है, कुछ को दूसरा व्यक्ति जानता है, कुछ को तीसरा व्यक्ति जानता है। इस तरह सभी अपनी-अपनी सीमाओं में, अपनी-अपनी दृष्टियों में वस्तु को जानते हैं और वे अपनीअपनी अपेक्षा से सही होते हैं। सभी के बोध आंशिक, अपूर्ण तथा सीमित होते हैं। इनमें किसी से किसी का विरोध नहीं होता है और कोई गलत भी नहीं होता है। एक ही व्यक्ति या वस्तु के विभिन्न चित्र जो विविध कोणों से लिए जाते हैं, सही होते हैं। उनकी विविधता के कारण उनकी यथार्थता बाधित नहीं होती है। क्योंकि वे सभी सापेक्ष होते हैं, आंशिक होते हैं। जैन दर्शन के इस सापेक्षतावाद से औपनिषदिक दर्शन प्रभावित है। उपनिषदों में ब्रह्म का वर्णन करते हुए उसे लघु से लघु तथा महान से महान कहा गया है।' यह कथन सापेक्षतावादी है निरपेक्षतावादी नहीं । यहाँ दो दृष्टियाँ, दो अपेक्षाएँ हैं। जब ब्रह्म पर लघुता की दृष्टि से विचार किया जाता है तब वह सबसे लघु कहलाता है, लेकिन जब ब्रह्म पर महानता की दृष्टि से विचार करते हैं तो वह महान से महान या सबसे महान समझा जाता है । ब्रह्म को लघु से लघु तथा महान से महान कहना विरोधी कथन नहीं है, बल्कि सापेक्ष कथन है। औपनिषदिक दर्शन पर इस प्रभाव को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि यह सिर्फ जैन दर्शन से प्रभावित है और इसने जैन पर कोई प्रभाव नहीं डाला है। औपनिषदिक निरपेक्षवाद का भी स्पष्ट प्रभाव जैन दर्शन पर दिखाई पड़ता है। वह प्रभाव जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा पर है। जैन ज्ञानमीमांसा ने पाँच प्रकार के ज्ञानों का प्रतिपादन किया है- मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव तथा केवल । इनमें मति तथा श्रुत ज्ञान परोक्ष ज्ञान है, क्योंकि इनकी उपलब्धि इन्द्रियों तथा मन से होती है। अवधि, मनः पर्यव तथा केवल प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, क्योंकि इनके बोध आत्मा से होते हैं। इनमें केवलज्ञान पूर्ण ज्ञान है। केवलज्ञान में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेद मिट जाता है। कैवल्य की स्थिति पूर्णता, एकत्व तथा निरपेक्षता की स्थिति होती है। इसीलिए इसे
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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