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________________ जैन एवं बौद्ध धर्मों में चतुर्विध संघों का परस्पर योगदान : ५९ निमन्त्रण एवं स्वयं उपनत दान को भी वे स्वीकार सकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही धर्मों में चतुर्विध संघ एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह आपसी सूझ-बूझ से ही करते थे। दोनों ही श्रमण संघों में भिक्षा, वस्त्र, पात्र तथा अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिये श्रावक संघ पर निर्भरता ने भिक्षु-भिक्षुणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के आपसी सम्बन्ध को और भी सशक्त और मधुर बना दिया था। महावीर और तथागत के भिक्षुओं को भोजन, वस्त्र, पात्र आदि प्रदान करना श्रावकों के लिये गौरव की बात थी। अतः वे संघ के किसी भी कार्य के लिये सदैव तत्पर रहते थे। इतना ही नहीं दोनों ही धर्मों के उपासकों ने श्रमण धर्म के प्रचार-प्रसार में भी अपना सक्रिय योगदान किया। जैन और बौद्ध धर्म के उपदेश और शिक्षाओं को श्रावक वर्ग ने ही जन-जन तक पहँचाकर उसे लोक प्रसिद्ध बनाया। इन उपासकों में भी जो उपासक हर प्रकार से सम्पन्न होते थे वे धर्म के प्रचारार्थ-प्रसारार्थ लोगों को देश-विदेश भी भेजते थे। सिंहली बौद्ध ग्रन्थ 'महावंस' के अनुसार सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ विदेश भेजा था। ऐसा कहा जाता है कि जब लंका में संघमित्रा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये गयी तब तक वहाँ जैन धर्म भी प्रचलित हो चुका था। हालांकि, बौद्ध धर्म के पूर्व जैन धर्म के वहाँ प्रचार पर सभी विद्वान् सहमत नहीं हैं। बुद्ध व महावीर के अनुयायियों में केवल उच्च वर्ग ने ही नहीं वरन् साधारण वर्ग ने भी अपनी-अपनी श्रद्धानुसार उनके सिद्धान्तों के प्रचार के लिए अनेक मन्दिरों, स्तम्भों, शिलालेखों व आयागपट्टों का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के भी समृद्ध उपासकों ने संघ की सुविधा के लिए विहार बनवाकर उसका दान दिया। मथुरा से प्राप्त एक शिलालेख १ से ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य एक जैन मन्दिर के विद्यमान होने का प्रमाण प्राप्त होता है जिसे उत्तरदासक नामक एक श्रावक ने बनवाया था। इसी प्रकार एक शिलालेख पर वास नामक मणिकार द्वारा अर्हत् मन्दिर सभा भवन (आयाग-सभा), प्रपा (प्याउ) और एक शिलापट्ट निर्मित किये जाने का उल्लेख है। इस आधार पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि जैन और बौद्ध संघों को लोकप्रिय बनाने में श्रावकों की भूमिका अत्यन्त सराहनीय रही है। इन चतुर्विध संघों में भिक्षु वर्ग और उपासक वर्ग का दायित्व समान था। क्योंकि इतने बड़े संघ को व्यवस्थापूर्वक चलाने के लिए केवल श्रमण वर्ग का ही नहीं, अपितु उपासक वर्ग का भी सहयोग अपेक्षित था। चूंकि आचार्य का दोनों ही संघों में सर्वोपरि स्थान होता था, अत: आचार्य द्वारा किये गये निर्णय से चतुर्विध संघ सहमत होता था। जैन धर्म के प्रति उपासकों की प्रतिष्ठा बनी रहे और उनके प्रति लोगों में अश्रद्धा का भाव उत्पन्न न हो इस दृष्टि से 'निशीथचूर्णि' में कहा गया है कि संघ की प्रतिष्ठा के रक्षण-निमित्त तन्त्र-मन्त्र,
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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