SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७ इस तरह के नियम बनाये गये जिससे किसी प्रकार का कोई व्यवधान उत्पन्न न हो और संघ की पवित्रता बनी रहे । प्रारम्भिक काल से ही संघ में भिक्षु भिक्षुणी और श्रावक-श्राविका का अत्यन्त स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहा है। ये दोनों ही संघ परस्पर एक-दूसरे का हर प्रकार से ख्याल रखते थे। भिक्षुओं की आवश्यकता के वस्त्र, पात्र, भोजन आदि की उचित व्यवस्था उपासक ही करते थे। बौद्ध संघ में वर्षान्त के पश्चात् उपासकों द्वारा भिक्षु व भिक्षुणी संघ को वस्त्र बाँटे जाते थे। इतना ही नहीं यदि कोई भिक्षु अज्ञानता वश किसी गृहस्थ या उपासक को हानि पहुँचा देता था या उसकी निन्दा जैसा नीच काम करता था तो वह संघ (बौद्ध) द्वारा प्रसारणीय कर्म का भागी होता था और उसे उस गृहस्थ से क्षमा भी मांगनी पड़ती थी। दोनों ही धर्मों के श्रमण संघों में भिक्षुओं और उपासकों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध का कारण दोनों ही संघों का एक-दूसरे को उचित आदर देना भी था । श्रावक या उपासक भिक्षु संघ के पालनहार होते थे और आवश्यक जीवनोपयोगी साधन उन्हें उपलब्ध कराते थे, अतः भिक्षुओं के लिये वे आदर के पात्र थे। दूसरी तरफ श्रमण संघ से श्रावकों का मार्ग निर्देशन और आत्मोत्कर्ष होता था, अतः श्रावक वर्ग के लिये वे आदरणीय व अनुकरणीय थे और इसके साथ ही उनसे अपने भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिये आशीर्वाद भी प्राप्त करते थे। कहने का तात्पर्य है कि आपसी सहयोग और प्रेम से दोनों ही संघ एक-दूसरे का पूर्णरूपेण ध्यान रखते थे और सम्मान करते थे। इसी परस्पर दायित्व की भावना के कारण ही जैन व बौद्ध संघ सतत प्रवाहमान है। तुलनात्मक रूप से दोनों धर्मों में यह अन्तर द्रष्टव्य है कि जैन धर्म जहाँ से उपजा और बढ़ा वहाँ पर आज भी जीवित है, किन्तु बौद्ध संघ अपनी उत्पत्ति स्थल से एकदम ही समाप्त हो गया, जबकि जैन संघ आज भी पूर्ववत है। दोनों ही धर्म के भिक्षु संघों ने उपासकों के प्रति अपने-अपने कर्तव्यों का पूर्णरूपेण पालन किया। जैन संघ द्वारा श्रमणों को यह निर्देश दिया गया था कि वे गृहस्थों के ऊपर अपना अनावश्यक भार न डालें और एक ही घर से भिक्षा ग्रहण करने की अपेक्षा गाँव-गाँव और नगर - नगर घूम-घूमकर जितनी मात्रा में भिक्षा प्राप्त हो उतनी ही मात्रा में उसे समभाव से ग्रहण करें। भोजन को व्यर्थ फेंकने की अनुमति उन्हें नहीं थी । " जैन धर्म में तो भिक्षावृत्ति की तुलना भ्रमरवृत्ति से की गयी है। जिस प्रकार भ्रमर एक फूल से दूसरे फूल पर घूम-घूम कर बिना उसे कष्ट पहुँचाए मधु ग्रहण करता है उसी प्रकार भिक्षु भिक्षुणियों को भी आदेश है कि वे गृहस्थ को बिना कष्ट पहुँचाये बस आवश्यकता भर ही भोजन ग्रहण करें।' बौद्ध धर्म में भी भिक्षुओं को केवल भिक्षा द्वारा प्राप्त अन्न से ही अपना जीवन निर्वाह करना होता था, यद्यपि
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy